डायरेक्टरः शरण शर्मा
स्टार कास्ट: जाह्नवी कपूर, पंकज त्रिपाठी, अंगद बेदी और विनीत कुमार सिंह
हिंदी सिनेमा में पिछले कुछ वक़्त से बायोपिक बनाने का चलन बढ़ा है. मेरे हिसाब से यह एक अच्छा क़दम है कि रियल लाइफ से कहानियों को दिखाना. फ़िल्मी परदे पर इन हीरोज़ की कहानी देख कर बहुत सरे लोग प्रेरित होंगे. शौर्य चक्र विजेता फ्लाइट लेफ्टिनेंट गुंजन सक्सेना की बायोपिक रिलीज़ हुए काफी वक़्त हो गया है.
गुंजन सक्सेना: दा कारगिल गर्ल- यह फ़िल्म ऑनलाइन प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध है. देश की पहली महिला पायलट बनने और फिर अपने शौर्य से कारगिल युद्ध में अपने साथियों की मदद करने की ये कहानी है. कारगिल युद्ध के दौरान सहस और पराक्रम दिखाने के लिए उन्हें शौर्य वीर पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया था. उन्होंने समाज की घिसी पिटी रूढ़वादी सोच को तोड़ते हुए नया इतिहास लिखा जो बिलकुल भी आसान नहीं था लेकिन आने वाली पीढ़ी के लिए महत्वपूर्ण था.
फ़िल्म की कहानी शुरू होती है एक एयरो प्लेन में जहाँ गुंजन सफर कर रही है अपने भाई के साथ. जहाँ वो एरोप्लेन की विंडो से खुला आसमान देखना चाहती है लेकिन बंद विंडो से वो आसमान नहीं देख सकती क्योकि पास में बैठा उसका भाई उसे ऐसा नहीं करने देता. तभी एयर होस्टेस गुंजन को एरोप्लेन की कॉकपिट से एक नयी दुनिया से रूबरू कराती है, तब ही गुंजन डिसाइड कर लेती है कि वो पायलट बनेगी. लेकिन उसके भाई का मानना है कि लड़किया पायलट नहीं बन सकती और गुंजन उसका ये भ्रम तोड़ देती है.
बचपन से बुने गए ख़्वाब को हक़ीक़त को बदलने में उसका साथ देते हैं उसके रिटायर्ड कर्नल पिता (पंकज त्रिपाठी) जिन्होंने अपने बच्चों के बीच में कभी भेदभाव नहीं किया. यही ख़ूबी इस फ़िल्म को ख़ास बनाती है.ये उसके पिता ही का प्रभाव रहा होगा, जिसने उसके बचपन के ख़्वाब को पूरा करने में मदद की. वो पायलट बनना चाहती थी और वो बनी भी. संकुचित सामाजिक दायरे ने कई लोगों को उन्हें उनके सपने देखने से रोका और पीछे धकेलने की कोशिश की. लेकिन सपने हमेशा खुली आँखों से देखे जाते हैं और जो सपने देखते हैं वो उन्हें पूरा करने का जूनून और जज़्बा रखते हैं और अपने सपने को पूरा करते हैं.
निर्देशन-
भारत की पहली महिला एयरफोर्स पायलट के सपनों और संघर्ष को परदे पर उकेरने में निर्देशक सरन शर्मा सफल रहे हैं. वो शुरुवाती सीन से ही फ़िल्म का एक मूड सेट कर देते हैं और उससे हिलते नहीं हैं. फ़िल्म की सबसे अच्छी बात ये है कि ये देश भक्ति का बिलकुल भी शोर नहीं करती है बल्कि अपनी बात बहुत ख़ामोशी से कह जाती है और दर्शकों के दिल में एक अहसास जगा देती है. यहाँ तक कि कारगिल युद्ध में जांबाज़ी दिखा कर आई गुंजन की तारीफ़ करता कोई भी बैकग्राउंड स्कोर नहीं डाला गया है. वहीँ देश भक्ति के अलावा जो अहम बात बहुत ही इफेक्टिव तरीक़े से कही गयी है वो है फेमिनिज़्म. बंदिशों को तोड़ते हुए निर्देशक ने कहानी को गढ़ा है.
आज से 25 साल पहले समाज कि रूढ़वादी मानसिकता से जूझना किसी जंग से कम नहीं था. लेकिन लखनऊ की गुंजन ने सारे बंधनो को तोड़ कर आसमान की उचाईयों को छुआ. फ़िल्म के संवाद काफ़ी इफेक्टिव है. एक सीन में गुंजन अपने पिता से पूछती है कि वो अपने सपने को पूरा करने के लिए एयर फोर्स में शामिल हो गयी है लेकिन देशभक्ति के जज़्बे कि वजह से नहीं.. कहीं वो देश के साथ गद्दारी तो नहीं कर रही. उसके पिता जवाब देते हैं तुम अपने काम की तरफ ईमानदार हो तो कैसे देश के साथ गद्दारी कर सकती हो. गुंजन ये सुनने के बाद काफी मुतमईन हो जाती है.
अदाकारी-
फ़िल्म मुख्य रूप से गुंजन में उसके पिता सा अडिग विश्वास को दिखती है. मुख्य भूमिका निभा रही जाह्नवी कपूर ने ठीक ठाक काम किया है उन्होंने इस फ़िल्म के लिए काफी मेहनत की है और वो स्क्रीन पर दिखती भी है. जाह्नवी के पिता बने पंकज त्रिपाठी ने अपने किरदार के साथ पूरी तरह से न्याय किया है. कैमरा जब जब उनकी तरफ जाता है तो उनसे नज़र नहीं हटती. वो हर एक दृश्य में प्रभावी लगते हैं. ये उनकी एक्टिंग का ही कमाल है कि जाह्नवी के साथ उनके जितने भी दृश्य हैं वो काफी प्रभावी बन पड़े हैं.
गुंजन उर्फ़ गुन्जू बनी जाह्नवी इस फ़िल्म में प्रभावित करती हैं. निर्देशक ने उनके क़िरदार को काफ़ी ख़ूबसूरती से रचा हैं. लम्बे संवाद में जाह्नवी की पकड़ छूटती हैं, शायद वो अपने क़िरदार को और ख़ूबसूरती से गढ़ सकती थी. लेकिन ये उनकी दूसरी फ़िल्म हैं और वो अच्छी लगी हैं. गुंजन की आँखों में एक चमक हैं, प्यार है, ईमानदारी है, मासूमियत है, लेकिन अपने घर, समाज और काम में रूढ़वादी मानसिकता को लेकर एक चिढ़ और आक्रोश भी है. जाह्नवी की एक्टिंग में वो सब कुछ दिखता है.
बड़े भाई के किरदार में अंगद बेदी और माँ बनीं आयशा रज़ा ने अपने किरदार के साथ न्याय किया है. वहीँ, विंग कमांडर बने विनीत कुमार सिंह अपने सीमित दायरे में जंचे हैं और प्रभावित करते हैं. मानव विज भी अपने छोटे से रोले में आकर्षित करते हैं.
तकनीकी पक्ष-
किसी भी फ़िल्म का सबसे अहम और महत्वपूर्ण हिस्सा होता है उसी पटकथा जो कि इस फिल्म का सबसे मज़बूत पक्ष है. निर्देशक शरण शर्मा ने निखिल मेहरोत्रा के साथ मिलके इस फ़िल्म कि पटकथा लिखी है जो कि बहुत ही अच्छी है. फ़िल्म महज़ 1 घंटे 52 मिनट की है और इतने समय में कहानी कहीं से भी नहीं भटकती है. फ़िल्म में सच्ची देश भक्ति रूबरू कराया गया है. चूँकि कहानी कारगिल युद्ध से सम्बंधित है, फ़िल्म में हवाई कलाबाज़ी, हेलीकाप्टर के बेहतरीन शॉट्स, और पायलट ट्रेनिंग दिखाई गयी है. कारगिल के शॉट्स देखते ही बनते हैं. आरिफ शेख ने फ़िल्म की एडिटिंग बहुत ही शानदार की है.
अमित त्रिवेदी के कम्पोज़ किये हुए संगीत को कौसर मुनीर के शब्दों का साथ मिला है. सबसे ख़ास बात ये है की सारे गाने फ़िल्म की कहानी को आगे बढ़ाते हैं जैसे रेखा ओ रेखा या नूरन सिस्टर्स का गया हुआ आसमान दी परी, ट्विस्ट देता है.अरिजित सिंह की आवाज़ में भारत की बेटी देशभक्ति की लौ जगाता है.
ईमानदारी से बनायीं गयी ये फ़िल्म कर्तव्यनिष्ठा द्वारा देशभक्ति का ग़ज़ब का एहसास दिलाती है. यक़ीन मानिये ये फिल्म आपके दिल को छू जाएगी. फ़िल्म की मुख्य अभिनेत्री को कहीं से भी सुपर वीमेन दिखाने की कोशिश नहीं की गयी है वो एक बेहतरीन पायलेट होने के साथ साथ एक आम इंसान की तरह ही है. जो आपके दिल को छू जाएगी. ये फ़िल्म पूरी तरह से पारिवारिक फ़िल्म है और पुरे परिवार के साथ बैठकर देखी जा सकती है.
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