मोहम्मद हुसैन फ़ारूक़ी: हिंदी सिनेमा के शुरुवाती दौर में बहुत से ऐसे गुमनाम कलाकार हुए जिन्होंने अपना काम बहुत शानदार तरीक़े से किया और वक़्त के साथ कहीं गुम हो गए. जो कलाकार थोड़ा मशहूर हो गए उन्हें तो लोग फिर भी याद कर लेते हैं लेकिन जिन्होंने ज़रा कम लेकिन अच्छा काम किया उन्हें याद करने वाला आज शायद ही कोई हो. कभी कभार उनके जन्मदिन या पुण्यतिथि पर भले ही सिनेमा प्रेमी कोई पोस्टर या छोटे लेख के ज़रिये उन्हें ख़िराज-ए-अक़ीदत कर देते हो. लेकिन उन पर और उनके काम पर रिसर्च बहुत ही कम हुआ है.
आज के दिन हम उस शाहकार की बात करेंगे जो अपनी कला में बहुत माहिर थे लेकिन वक़्त के तूफ़ान में उनको लोग कम ही याद करते हैं. आज हम बात करेंगे सिनेमा के शुरुवाती दौर के कलाकर मोहम्मद हुसैन फ़ारूक़ी साहब की और इस लेख के ज़रिये उन्हें ख़िराज-ए- अक़ीदत पेश करेंगे. उनके बारे में जब रिसर्च कर रहा था तो बस एक ही आर्टिकल मिला जो प्रोफेसर सुरजीत सिंह ने काफी रिसर्च के बाद लिखा है.
इस आर्टिकल में उन्होंने लगभग सारी इनफार्मेशन दी है जितनी उन्हें मुहैय्या हो पायी. इस तरह के रिसर्च में सबसे बड़ा मसला होता है कि सिनेमा के शुरुवाती दौर के कलाकारों के बारे में किसी को भी कोई इनफार्मेशन नहीं है. कभी कभी इत्तेफ़ाक़ होता है कि आमुक कलाकार के किसी फॅमिली मेंबर से बात हो जाती है तो थोड़ी बहुत इनफार्मेशन मिल जाती है.
मोहम्मद हुसैन फ़ारूक़ी की पैदाइश 17 अगस्त 1915 को राजस्थान के झुंझुनू शहर के मोहल्ला पीरजादगान के एक धार्मिक परिवार में हुआ था. उन्होंने अपनी बुनियादी पढाई लिखे अपने वालिद साहब यानि अपने पिता हाजी मुनीरुद्दीन से घर पर ही हासिल की. बचपन में ही उन्होंने गाना शुरू कर दिया था.
लेकिन अपनी जवानी में मोहम्मद हुसैन फ़ारूक़ी साहब ने संगीत में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया; वह झुकाव हमेशा संगीत की दुनिया की तरफ ही था. अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान उन्होंने राजस्थान में विभिन्न मंच कार्यक्रमों में गाना गण शुरू कर दिया था. हालाँकि, उनके हाजी वालिद साहब उनके गाना गाने के सख़्त ख़िलाफ़ थे. जब मोहम्मद फारूकी ने अपनी शिक्षा मुक़म्मल की, तो उनके पिताजी चाहते थे कि उनका बेटा एक शिक्षक बने, लेकिन होनी को कुछ और ही मंज़ूर था उन्होंने अपनी मंज़िल एक फ़िल्म स्टूडियो में देखी.
आख़िरकार 1945 में मोहम्मद हुसैन फ़ारूक़ी साहब प्रसिद्ध संगीत निर्देशक खेमचंद प्रकाश के लिए एक संदर्भ पत्र लेकर (खेमचंद प्रकाश भी राजस्थान से ही थे) एक गायक के रूप में हिंदी फ़िल्म उद्योग में अपनी किस्मत आज़माने के लिए बंबई आए. बम्बई में उन्हें जानने वाले एकमात्र व्यक्ति आज़ाद फ़ारूक़ी थे, जिनके साथ फ़ारूक़ी साहब कुछ वक़्त के लिए पुराने खार में रुके थे.
एक साल तक संघर्ष करने के बाद, खेमचंद प्रकाश ने फ़ारूक़ी से अपने घर पर मिलने के लिए बुलाया. जब मोहम्मद हुसैन फ़ारूक़ी साहब वहां पहुंचे तो मशहूर गायक और अभिनेता के. एल. सहगल भी मौजूद थे. खेमचंद प्रकाश ने उन्हें सहगल से मिलवाया और उन्होंने फ़ारूक़ी साहब से एक गाना गाने के लिए कहा. उन्होंने सहगल साहब की पमशहूर लोरी, ‘सोजा राज कुमारी सोजा’ गाया. यह सुनने के बाद सहगल साहब बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने कहा, ”उनकी आवाज़ में कुछ नयापन है” यह मोहम्मद हुसैन फ़ारूक़ी के लिए रणजीत मूवीटोन के साथ मासिक वेतन पर अनुबंध पाने के लिए पर्याप्त था.
कुछ वक़्त बाद उन्हें सह-गायक के रूप में पहली फ़िल्म मिली, लेकिन फ़ारूक़ी साहब को असली सफलता 1947 में मिली. यह उनके संगीत करियर के लिए एक सुनहरा साल था. इस साल उनकी फ़िल्में ‘छीन ले आजादी’, ‘दुनिया एक सराय’, ‘लाखों में एक’ और ‘पहली पहचान’ रिलीज़ हुईं. उनके गाये हुए सभी गानों को ख़ूब पसंद किया गया. विशेष रूप से, फ़िल्म ‘छीन ले आज़ादी’ का गाना ‘कमज़ोरों की नहीं हैं दुनिया’ स्वतंत्रता सेनानियों के बीच खासा मशहूर हुआ था, जिन्होंने जल्द ही एक स्वतंत्र राष्ट्र का लक्ष्य हासिल कर लिया.
एक और गाना जिसने फ़ारूक़ी साहब को बुद्धिजीवियों और मजदूर वर्ग दोनों का चहेता बना दिया, वह था फ़िल्म ‘दुनिया एक सराय’ का गाना ‘एक मुसाफिर ऐ बाबा एक मुसाफिर जाए.’ 1948 में फ़िल्म के भजन ‘जय हनुमान’ और फ़िल्म ‘मिट्टी के खिलोने’ के भजन ‘इस खाक के पुतले को’ को जनता ने ख़ूब सराहा था. उनकी अगली दो फ़िल्में ‘भूल भुलैयां 1949’ और ‘अलख निरंजन 1950’ भी मक़बूल रहीं. श्री फ़ारूक़ी उन गायकों में से एक थे जो बिना किसी गुरु से औपचारिक संगीत प्रशिक्षण के सफल हुए.
साल 1950 के आख़िरी महीने चल रहे थे. फ़ारूक़ी के वालिद साहब बहुत बीमार पड़ गए और उन्हें तुरंत घर आने का पैग़ाम भेजा. अपनी तमाम सफल फ़िल्मों के बाद फ़ारूक़ी साहब को बंबई छोड़नी पड़ी और उसके बाद वह कभी दोबारा गाना गाने के लिए वापस नहीं गए.
उन्होंने अपनी बाक़ी ज़िन्दगी समाज के ग़रीब वर्ग को शिक्षा की रोशनी से मदद करने के मिशन के रूप में बिताई.
8 फरवरी 1990 को मोहम्मद फारूकी 75 साल की उम्र में वह इस फ़ानी दुनिया से हमेशा के लिए रुखसत हो गए.
उनकी मौत के बाद उनके कुछ दोस्तों ने कुछ इस तरह से उन्हें ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश की…
ख़बर क्या मोहम्मद तुम हमें तन्हा छोड़ जाओगे,
दिल-ए-रहबर को ग़मगीन और पुरनम बनायेंगे,
अब ना सुबह आएगी इस शाम के बाद,
बस हम तो सिर्फ़ आपके गीत गुनगुनाएंगे… अलविदा मोहम्मद हुसैन फ़ारूक़ी
मोहम्मद फ़ारूक़ी का नाम हिंदी सिनेमा में उनके योगदान के लिए कम सराही गई कई प्रतिभाओं की सूची में शामिल होगा…
फ़िल्मोग्राफ़ी-
छीन ले आज़ादी (1947)
दुनियां एक सराय (1947)
लाखों में एक (1947)
पहली पहचान (1947)
पिया घर आजा (1947) केवल अभिनय
नील कमल (1947) केवल अभिनय
बिछड़े बालम (1948)
जय हनुमान (1948)
मिट्टी के खिलोने (1948)
परदेसी मेहमान (1948)
भूल भुलैयां (1949)
अलख निरंजन (1950)
साभार: प्रोफेसर सुरजीत सिंह साहब
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