फ़ारूख़ शेख़ का नाम आते ही ज़हन में सादगी की एक प्यारी तस्वीर सी उभर आती है एक ऐसे अदाकार जो फ़िल्मी परदे पर जब भी आता तो बस देख कर उस पर प्यार ही आता. सीधे सादे भोले भाले और अनजान से क़िरदारों को उन्होंने बहुत ही सादगी के साथ परदे पर उतारा है चाहे वो गरम हवा के सिकंदर मिर्ज़ा हों, चश्मे बद्दूर के सिद्धार्थ पराशर, या फिर उमराव जान के नवाब सुल्तान.
हर क़िरदार को उन्होंने बहुत ही शिद्दत के साथ जिया. शायद ऐसे क़िरदार उनकी शख़्सियत पर जंचते थे. फ़िल्म गमन (1978) में उत्तर प्रदेश के गाँव से पैसे कमाने के लिए मुंबई रवाना हुआ इनका क़िरदार बड़े शहर के आतंक से ग्रसित है. इस फ़िल्म में शायर शहरयार का लिखा गीत – सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है, इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है.. ऐसा लगता है ये नग़मा इनके फ़िल्मी करियर की पूरी दास्तान है.
असल ज़िन्दग़ी में फ़ारूख़ सादगी की जीती जागती मिसाल थे और उन्होंने अपनी पूरी ज़िन्दग़ी बहुत ही सादगी से जी. इनकी पैदाइश 25 मार्च 1948 को बोडेली कस्बे के निकट नसवाडी ग्राम के निकट बड़ोदी गुजरात के अमरोली में हुआ. बाद में इनके वालिद मुस्तफ़ा शेख़ साहब जोकि पेशे से वकील थे, रोज़ी रोटी की तलाश में मुंबई आकर बस गए थे. उनकी वालिदा का नाम फरीदा शेख़ था. ये अपने पांच भाई बहनों में सबसे बड़े थे.
इन्होने अपनी शुरुवाती पढ़ाई लिखाई मुंबई के सेंट मैरी स्कूल से की उसके बाद आगे की पढ़ाई उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज में की. ये अपने वालिद साहब से ख़ासे मुतासिर थे इसलिए अपने करियर के लिए इन्होने वकालत को ही चुना. इसके पीछे इनका मक़सद था वालिद की विरासत को आगे ले जाने का.
मुंबई के सिद्धार्थ कॉलेज ऑफ लॉ से उन्होंने कानून की पढ़ाई पूरी की. वकालत की पढ़ाई के दौरान ही इन्होने ये महसूस किया कि जैसे ये करियर इनके लिए है ही नहीं. क्योंकि वो बहुत ही नाज़ुक दिल के थे और उन्होंने अपने वालिद को ज़्यादातर कोर्ट कचेहरी और पुलिस थाने में ही उलझे देखा था.
कॉलेज के दिनों में ही इन्होने नाटकों में काम करना शुरू कर दिया था. यहीं इनकी दोस्ती मशहूर और मारूफ़ अदाकारा शबाना आज़मी से हुई थी. दोनों ने कई नाटक साथ में किये थे. चूँकि शबाना को एक्टिंग में ही अपना करियर बनाना था इसलिए जब वो एक्टिंग के लिए फिल्म इंस्टिट्यूट जाने लगीं तो उन्होंने फ़ारुख़ से भी चलने को कहा लेकिन उन्होंने मन कर दिया उन्हें तो वकालत की पढ़ाई करनी थी.
अपनी ज़िन्दग़ी के बारे में फ़ारुख़ ख़ुद बताते हैं कि स्कूल के दिनों से न केवल क्रिकेट के दीवाने थे, बल्कि अच्छे क्रिकेटर भी थे. उन दिनों भारत के मशहूर टेस्ट क्रिकेटर वीनू मांकड़ सेंट मैरी स्कूल के दो सर्वश्रेष्ठ क्रिकटरों को हर साल कोचिंग देते थे और हर बार उनमें से एक फ़ारुख़ हुआ करते थे. जब वह सेंट जेवियर कॉलेज में पढ़ने आये तो उनका खेल और निखर गया. सुनील गावस्कर फ़ारुख़ के साथ ही क्रिकेट खेला करते थे और दोनों अच्छे दोस्त भी थे.
फ़िल्मों में इन्हे काम कैसे मिला उसके पीछे बड़ा ही दिलचस्प क़िस्सा है दरअसल हुआ यूँ कि फिल्म मेकर एम. एस. सैथ्यू ‘गरम हवा’ नाम की एक फिल्म बना रहे थे और उन्हें ऐसे कलाकार की जरूरत थी, जो बिना फीस लिए तारीखें दे दे. फ़ारूख़ थिएटर की संस्था इप्टा से जुड़े हुए थे तो ये खबर इनके कानों में आयी तो इन्होने बिना किसी शर्त के ये फ़िल्म साइन कर ली. इस फ़िल्म के हिट होने के बाद फ़ारूख़ को पांच साल बाद 750 रुपये मिले. फ़ारुख़ शेख़ के वकालत छोड़ कर फ़िल्मों में काम करने से उनके वालिदैन को थोड़ा ताज्जुब तो हुआ लेकिन उन्होंने बेटे के इस एहम फैसले में उसका साथ दिया.
बकौल फ़ारुख़ उन दिनों फ़िल्मों में काम करना बुरा नहीं माना जाता था. ‘गरम हवा’ की रिलीज के बाद फ़ारुख़ के काम की बहुत तारीफें हुईं और उनके पास दूसरी फ़िल्मों के ऑफर आने लगे. विख्यात निर्देशक सत्यजित रे को उनका काम काफी पसंद आया तो उन्होने अपनी पहली और आखिरी हिंदी फ़िल्म ‘शतरंज के खिलाड़ी’ में उन्हें एक रोल ऑफर कर दिया. जब सत्यजित रे ने फोन किया तो फ़ारुख़ किसी काम की वजह से कनाडा में थे, उन्होंने कहा कि मुझे लौटने में एक महीने का वक़्त लगेगा, सत्यजित रे ने कहा कि वे इंतजार करेंगे जब तक वो वापस नहीं आ जाते वो फ़िल्म की शूटिंग नहीं शुरू करेंगे.
शुरुआती सफलता मिलने के बाद फ़ारुख़ शेख़ को आगे और भी फ़िल्में मिलने लगीं जिसमें 1979 में रिलीज़ हुई फ़िल्म ‘नूरी’, 1981 की चश्मे बद्दूर जैसी फ़िल्में शामिल हैं. इन फ़िल्मों को दर्शको ने हाथों हाथ लिया. दीप्ति नवल के साथ इनकी जोड़ी खूब पसंद की जाती थी. सत्तर के दशक में इन दोनों ने एक साथ मिलकर कई फ़िल्में की जिसमें चश्मे बद्दूर, साथ-साथ, कथा, रंग-बिरंगी जैसी फ़िल्में शामिल हैं. इस जोड़ी की आख़िरी फ़िल्म ‘लिसेन अमाया’ थी, जो कि साल 2013 में रिलीज़ हुई थी.
फ़ारूख़ के बेहतरीन अदाकरी से सजी एक और फ़िल्म है ‘एक पल’ यही वो फ़िल्म थी जिससे कल्पना लाज़मी ने अपने निर्देशिकी करियर की शुरुवात की थी. गुरुदत्त के भाई आत्माराम के सहयोग से बनी ये फ़िल्म सिनेमाघरों तक नहीं पहुंच पायी और फ़िल्म फेस्टिवल तक महदूद रह गयी. हालांकि इस फ़िल्म में भी इन्होने बेहतरीन काम किया था.
फ़ारूख़ की ज़्यादातर फिल्मों को कला की श्रेणी में रखा जाता है, 70 के दशक में नसीर,शबाना, दीप्ति के साथ फ़ारूख़ की उपस्थिति फ़िल्म को एक अलग तरह की गति देती थी. फ़िल्म लोरी, अंजुमन को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है.
फ़ारूख़ की बात हो और फ़िल्म उमराव जान का ज़िक्र न हो ऐसा तो हो ही नहीं सकता. फ़िल्म के डायरेक्टर मुज़फ्फर अली के साथ इन्होने तीन फ़िल्में गमन, अंजुमन और उमराव जान में काम किया. मुज़फ्फर अली ने उमराव में लीड रोल के लिए कमर्शियल फ़िल्मों की अदाकारा रेखा को जब कास्ट किया तो फ़ारूख़ थोड़ा हिचकिचाए लेकिन जब उन्होंने रेखा के साथ ये फ़िल्म की तो वो रेखा को बेहतरीन अदाकारा मानने लगे. बाद में उन्होंने रेखा के साथ कई और फ़िल्मों में काम किया.
ऋषिकेश मुख़र्जी के साथ इन्होने रंग बिरंगी और किसी से ना कहना जैसी फ़िल्मों में काम किया. ऋषि दा फ़ारूख़ की सादगी भरी अदाकारी से काफ़ी इंप्रेस हुए थे. इसलिए जब उन्होंने टी वी की दुनिया की तरफ रुख़ किया तो उन्होंने सबसे पहले फ़ारूख़ को ही याद किया. शरत चंद्र के उपन्यास पर जब धारावाहिक बना तो श्रीकांत की भूमिका के लिए इन्हे ही चुना गया.
इन्होने टी वी की दुनिया में रिसर्च के बाद अपना टॉक शो ‘जीना इसी का नाम है’ शुरू किया. ये अपने तरह का एक अनोखा शो था. इसमें जो भी गेस्ट आते थे उन्हें उनके बचपन के दोस्त- सहपाठी और फॅमिली के साथ पेश किया जाता था.
फ़ारूख़ की सादगी की क्या मिसाल पेश की जाये, फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध का उन पर कोई असर नहीं हुआ. अपनी चाल में चले. अपनी तबियत से मिलते जुलते क़िरदार किये. थिएटर हमेशा से उनका पहला प्यार था. ‘तुम्हारी अमृता’ का मंचन लगातार 20 सालों तक किया. मशहूर फ़िल्म ये जवानी है दीवानी में ये रणबीर कपूर के वालिद की भूमिका में नज़र आये. इनकी आख़िरी फ़िल्म ‘क्लब 60’ थी, जो 2013 में रिलीज़ हुई थी. 28 दिसंबर 2013 को दिल का दौरा पड़ने की वजह से ये दुनिया- ए- फ़ानी से हमेशा के लिए रुख़्सत हो गए. इन्हे अँधेरी वेस्ट के क़ब्रिस्तान में इनके माँ की क़ब्र के पास दफ़नाया गया.
अगर इनकी निजी ज़िन्दग़ी में झांके तो पता चलता है कि इनकी शादी इनकी कॉलेज की ही दोस्त रूपा से हुई और इस शादी से इन्हे दो बेटियां हैं साइस्ता और सना. छोटी बेटी सना मुंबई में किसी NGO के साथ काम करती हैं.
उन्हें फ़िल्म लाहौर के लिए बेस्ट सपोर्टिंग एक्टर का नेशनल अवार्ड मिला. उसके अलावा बिमल रॉय लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान से भी नवाज़ा गया. फ़ारूख़ ने 60 से ज़्यादा फ़िल्मों में काम किया.. हमारे बीच वो अपनी फ़िल्मों के ज़रिये आज भी ज़िंदा हैं.