कल्ट क्लासिक फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म (1960) के निर्देशक के. आसिफ़ संगीतकार नौशाद से फ़िल्म के संगीत पर बात कर रहे थे कि दो गीत फ़िल्म के हीरो दिलीप कुमार और हिरोइन मधुबाला के प्रेम को दर्शाने के लिए रिकॉर्ड करने हैं लेकिन उनका फिल्मांकन तानसेन पर किया जायेगा. अब समस्या यह आयी कि ऐसा कौन सा गायक है जो तानसेन की आवाज़ बन सके और गीतों में जान डाल सके. नौशाद साहब ने तपाक से जवाब दिया, बड़े ग़ुलाम अली खां साहब. लेकिन वह तो फिल्मों के लिए गाते नहीं के. आसिफ़ ने जवाब दिया. फ़िल्म में मो. रफ़ी पहले ही ‘ऐ मोहब्बत ज़िंदाबाद गए चुके थे.’ इसके अलावा नौशाद किसी और गायक से गीत गवाने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे. के. आसिफ़ ने नौशाद साहब से मशविरा किया चलो एक बार बड़े ग़ुलाम अली साहब से बात करके देखते हैं क्या पता वो मान ही जाएँ.
दोनों बड़े ग़ुलाम अली खां के घर गए और उनसे गाने की गुज़ारिश की. बड़े ग़ुलाम अली साहब ने पहले तो मना किया लेकिन जब के. आसिफ़ नहीं माने तो उन्होंने टालने के लिए एक गीत के लिए 25 हज़ार मुआवज़े की बात कह दी. इस गरज़ से कि इतनी बड़ी रक़म सुन कर के. आसिफ़ मना कर देंगे. उन्हें क्या पता था के. आसिफ़ साहब जुनूनी और मतवाले आदमी हैं वह अपनी फ़िल्म के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं. के. आसिफ़ ने बिना कुछ सोचे समझे कहा बस! अपनी जेब से 25 हज़ार रूपए की गद्दी निकली और मेज़ पर रख दी और कहा कि यह एक गाने का एडवांस है. यह देख कर खां साहब के पास कोई जवाब नहीं था सिवाए हाँ करने के. के. आसिफ़ ने कहा कि आपको दो गाने गाने हैं. बड़े ग़ुलाम अली साहब ने फ़िल्म में दो गीत ‘शुभ दिन आयो’ और ‘प्रेम जोगन बन के’ गाकर इतिहास रच दिया. जिस वक़्त बड़े ग़ुलाम अली साहब को इतनी बड़ी रक़म दी गयी थी उस वक़्त फ़िल्म इंडस्ट्री के बड़े बड़े दिग्गज गायकों को 500 रूपए भी नहीं मिलते थे.
12 साल की उम्र में नौशाद साहब अपने मामूजान के साथ बाराबंकी के देवा शरीफ़ के सालाना उर्स में गए थे. देवा बाराबंकी से 12 किलोमीटर की दूरी पर सूफ़ी श्राइन है. उनके मामू ने उनसे कहा कि बेटा उर्स में बहुत भीड़ है, एक पल के लिए भी मेरा हाथ नहीं छोड़ना, वर्ना अगर कहीं आप खो गए तो आपके वालिद (पिता) को क्या जवाब दूंगा. उस वक़्त ट्रांसपोर्टेशन के इतने साधन नहीं हुआ करते थे. देवा के उर्स में लोग रात में वहीँ रुका करते थे. रात के बारह बजे बांसुरी की धुन सुन कर नौशाद साहब अपनी सुध-बुध खो बैठे और चलते हुए दरगाह के दरवाज़े पर पहुंच गए, जहाँ एक बुज़ुर्ग बांसुरी बजा रहे थे. मामू उन्हें ढूंढ़ते हुए वहाँ पहुंच गए और नौशाद साहब को खूब डांटा. यहीं से नौशाद साहब का संगीत से ऐसा रूहानी जुड़ाव हुआ जो उनके साथ ज़िन्दगी भर रहा.
नौशाद के वालिद साहब वाहिद अली को गाना- बजाना बिलकुल भी पसंद नहीं था. लेकिन नौशाद साहब बम्बई (अब मुंबई) आ गए थे अपने घर वालों को बताये बग़ैर फिल्मों में संगीत दिया करते थे. उनका यह राज़ सिर्फ उनकी अम्मी को पता था. एक दिन नौशाद साहब की अम्मी का खत उन्हें मिला जिसमें उन्हें इत्तेला दी गयी थी कि उनकी शादी फिक्स हो गयी है और लड़की के घर वालों को गाने बजने वाले नहीं पसंद हैं इसलिए ख़ुदा के वास्ते इस बात का ज़िक्र किसी से ना करना कि तुम संगीत से जुड़े हुए हो, क्योंकि हमने लड़की वालों को बताया है कि लड़का बम्बई में दर्ज़ी का काम करता है. उसके कुछ वक़्त बाद उनके वालिद का ख़त आया कि फलाँ तारीख़ को आपका निकाह है आ जाना ! बारात के वक़्त जब नौशाद साहब घोड़ी पर बैठ कर बारात ले जा रहे थे तो बंद वालों ने उन्ही की फ़िल्म ‘रतन’ (1944) का मशहूर गीत – ‘आंखियाँ मिला के, जिया भरमा के, चले नहीं जाना चले नहीं जाना.’ जिसे सुन कर बाराती नाचने लगे तो नौशाद साहब के वालिद साहब ने ग़ुस्से में कहा, ख़ुदाया “किस कम्बख़्त ने ये गाना बनाया है, यह गीत संगीत आजके बच्चों को बर्बाद कर रहा है.” नौशाद साहब सेहरे के अंदर बस धीरे से मुस्कुरा दिए और धीरे से अपने मन में कहा कि इस गीत को रचने वाला इस वक़्त आपके सामने घोड़ी पर बैठा है.
दूसरा क़िस्सा कुंदन लाल सहगल साहब से जुड़ा हुआ है. के. एल. सहगल साहब बिना पिए नहीं गेट थे. बात तब कि है जब नौशाद साहब फ़िल्म शाहजहाँ (1946) का संगीत तैयार कर रहे थे. फ़िल्म के एक गीत ‘जब दिल ही टूट गया हम जी के क्या करेंगे’ को गाने की बारी आयी तो नौशाद साहब ने के. एल. सहगल से कहा कि मैं चाहता हूँ कि आप इस गीत को बिना पिए गायें. के. एल. सहगल ने उन्हें समझने की ख़ूब कोशिश की कि बिना पिए वह नहीं गए पाएंगे लेकिन नौशाद साहब अपनी ज़िद पे अड़ गए और के. एल. सहगल को बिना पिए ही उस गीत को गाना पड़ा. जब यह गीत बन कर तैयार हुआ तो इस गीत को सुनने के बाद के. एल. सहगल की आँखों में आसूँ आ गए. उन्होंने नौशाद को गले लगाते हुए कहा, “अगर तुम मुझे पहले मिल गए होते तो मैं कुछ साल और जी जाता. कहते हैं कि के. एल. सहगल को यह गीत इतना पसंद था कि उन्होंने वसीहत की थी कि मेरे जनाज़े के साथ यह गीत ज़रूर बजाया जाये. यह बात कितनी सच है मैं नहीं जनता क्योंकि इस बात का ज़िक्र कुंदन सहगल पर शरद दत्त के द्वारा लिखी हुई किताब में कहीं नहीं मिलता है.
तीसरा क़िस्सा फ़िल्म बैजू बावरा (1952) से जुड़ा हुआ है. इस फ़िल्म का एक गीत ‘ओ दुनिया के रखवाले’ (राग दरबारी) के लिए मो. रफ़ी से इतनी ज़्यादा मेहनत करवा ली कि इस गीत को गाने के बाद रफ़ी साहब को काफ़ी वक़्त तक आराम करना पड़ा था, यानी कि उन्होंने कुछ दिनों तक किसी गाने की रिकॉर्डिंग नहीं की थी. इस फ़िल्म ने अपने वक़्त में काफ़ी शोहरत कमाई थी और मीना कुमारी को इंडस्ट्री में स्थापित कर दिया था. इस फ़िल्म के बाद उन्होंने फिर पीछे मुड़ के नहीं देखा था. इस फ़िल्म का निर्देशन विजय भट्ट ने किया था. मीना कुमारी को इंडस्ट्री में ब्रेक देने का श्रेय भी इन्ही को जाता है. इस फ़िल्म में कुल 13 गाने थे. मो. रफ़ी का यह गीत अपने वक़्त में काफ़ी मक़बूल हुआ था.