भगवान के नाम से हिंदी सिनेमा में सिर्फ एक ही कलाकार हुआ जिसे हम और आप मोहब्बत से या प्यार से भगवान दादा के नाम से जानते हैं. भगवान दादा की पैदाइश 1 अगस्त 1913 को बम्बई में हुई थी. वह एक बेहतरीन अदाकार होने के साथ साथ एक ज़बरदस्त लेखक और फ़िल्म निर्देशक भी थे. इस मौक़े पर उनकी सबसे मशहूर फ़िल्म ‘अलबेला’ का ज़िक्र ज़रूर करना चाहूंगा. उनकी सामाजिक फ़िल्म ‘अलबेला’ (1951) और इस फ़िल्म के गाने “शोला जो भड़के” और “ओ बेटा जी ओ बाबूजी किस्मत की हवा कभी नरम” और “शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो” ख़ासी मशहूर हुई थी.
भगवान दादा की अगर शुरुवाती ज़िन्दगी की बात की जाये तो इनका जन्म महाराष्ट्र के अमरावती के साधारण परिवार में हुआ था. जब यह पैदा हुए तो इनका नाम भगवान अभाजी पलव रखा गया था. इनके वालिद साहब एक कपडा मिल में काम करते थे और फिल्मों के बड़े ही शौक़ीन थे. वह ख़ुद तो फ़िल्म देखने जाते ही थे साथ में अपने बेटे को भी लेकर जाते थे और यहीं से भगवान दादा का फिल्मों की तरफ रुझान बढ़ गया. वह हमेशा फिल्मों में काम करने के सपने देखने लगे. कहते हैं असली सपने वह हैं जो खुली आँखों से देखे जाते हैं, खुली आँखों से देखे हुए सपने को पूरा करने के लिए इन्होने ख़ूब मेहनत की. इन्होने अपने करियर की शुरुवात मूक फिल्मों में छोटी भूमिकाओं से की और वह पूरी तरह से स्टूडियो से जुड़ गये. इस दौरान उन्होंने फ़िल्म-निर्माण की कला सीखा और एक समय पर कम बजट की फ़िल्में बनाते थे (जिसमें वे वेशभूषा के डिज़ाइन और कलाकारों के लिए भोजन की व्यवस्था सहित हर चीज़ की व्यवस्था ख़ुद करते थे)
उन्होंने 1938 में चंद्रराव कदम के साथ अपनी पहली फ़िल्म बहादुर किसान का सह-निर्देशन किया. 1938 से 1949 तक उन्होंने कम बजट की स्टंट और एक्शन फिल्मों का निर्देशन किया जो मजदूर और कामकाजी लोगों के बीच लोकप्रिय थीं. वह आमतौर पर अपनी फिल्मों में एक भोले-भाले आम इंसान की भूमिका निभाते थे. इस अवधि के दौरान उनके द्वारा बनाई गई उल्लेखनीय फ़िल्मों में से एक तमिल फिल्म वाना मोहिनी (1941) थी जिसमें एमके राधा और श्रीलंकाई अभिनेत्री थवामनी देवी ने अभिनय किया था.
1942 में भगवान दादा जंग-ए-आज़ादी फ़िल्म की शूटिंग मशहूर अदाकारा ललिता पवार के साथ कर रहे थे. ललिता पवार उन दिनों फ़िल्मों में मुख्य अदाकारा के तौर पर काम करतीं थीं. एक सीन के दौरान उन्हें ललिता पवार को जोरदार थप्पड़ मारना था. उन्होंने ललिता पवार को ग़लती से इतनी ज़ोर से थप्पड़ मार दिया, जिसके परिणामस्वरूप उनके चेहरे पर लकवा मार गया और बाईं आंख की नस फट गई. तीन साल के इलाज के बाद, ललिता पवार की बायीं आंख ख़राब हो गई और उनका करियर लगभग ख़त्म हो गया था. बाद में उन्होंने फ़िल्मों में चरित्र भूमिकाएं निभानी शुरू की और बहुत मक़बूलियत हासिल की.
1942 में उन्होंने जागृति पिक्चर्स के नाम से उन्होंने अपना प्रोडक्शन हाउस बनाया. और 1947 में चेंबूर में ज़मीन खरीद कर जागृति स्टूडियो की स्थापना की. राज कपूर की सलाह पर, उन्होंने अलबेला नामक एक सामाजिक फिल्म बनाई , जिसमें भगवान और गीता बाली ने अभिनय किया. इस फ़िल्म का संगीत उनके जिगरी दोस्त चितलकर , या सी. रामचन्द्र ने दिया था. इस फ़िल्म के सारे गाने बहुत मशहूर हुए और आज भी याद किये जाते हैं. अलबेला जबरदस्त हिट रही. अलबेला के बाद, भगवान को सी. रामचन्द्र और गीता बाली ने फिर से झमेला (1953) में काम किया, जहाँ उन्होंने अलबेला की फार्मूलाबद्ध सफलता को दोहराने की कोशिश की लेकिन बात कुछ बनी नहीं. उन्होंने 1956 में फ़िल्म भागम भाग का निर्देशन और अभिनय भी किया.
भगवान दादा जब अपने करियर के शबाब पर थे तो उनके बहुत से क़िस्से मशहूर हुए उनमे से एक क़िस्सा यह भी है कि वह स्टार बनने के बाद वह 25 कमरों के बंगले में रहा करते थे और उनका यह घर जुहू में था. यही नहीं उन्हें लक्ज़री कार रखने का काफ़ी शौक़ था. एक रिपोर्ट के मुताबिक उनके पास 7 कारें थीं. हर दिन वह कार बदल-बदल कर फ़िल्मों की शूटिंग पर जाया करते थे. यहाँ तक तो सब ठीक चल रहा था उनकी ज़िन्दगी में. लेकिन ऊपर वाला अगर छप्पर फाड़ के देता है तो कभी कभी ले भी ले लेता है. अपने करियर की पीक पर वह जिस चीज़ पर हाथ रखते थे वह चीज़ सोना हो जाती थी लेकिन उन्होंने कुछ ऐसी गलती कर दी कि वह अर्श से फर्श पर आ गए.
भगवान दादा ने अपनी सारी जमा पूँजी लगा कर एक भव्य फ़िल्म का निर्माण शुरू किया. यह एक कॉमेडी फ़िल्म थी जिसका नाम उन्होंने ‘हँसते रहना’ रखा. इस फ़िल्म में उन्होंने किशोर कुमार को बतौर हीरो साइन किया, शायद उनकी ज़िन्दगी की यह सबसे बड़ी भूल थी. यह फ़िल्म कभी अपने अंजाम पर नहीं पहुंच पायी. और इनका लगाया हुआ सारा पैसा डूब गया. इसके बाद इन्हे अपना बांग्ला और गाड़ी तक बेचनी पड़ी और सारी ज़िन्दगी चॉल में गुज़ारनी पड़ी.
2016 में, एक मराठी फ़िल्म ‘एक अलबेला’ के नाम से रिलीज़ हुई जो भगवान दादा की बायोपिक थी.
अपने फ़िल्मी करियर में उन्हें जो भी भूमिकाएं मिलीं उन्हें उन्होंने बहुत ही ईमानदारी से निभाया, लेकिन झनक झनक पायल बाजे (1955), चोरी चोरी (1956) और गेटवे ऑफ़ इंडिया (1957) के अलावा कोई भी उनकी निभायी भूमिका याद नहीं आती है. उन्होंने कुछ फ़िल्मों में अपना मशहूर डांस किया जिसके लिए वह जाने जाते थे बाद में अमिताभ बच्चन ने इसे अपने डिफ़ॉल्ट डांस स्टेप के रूप में इस्तेमाल करके और भी मशहूर बना दिया.
कहते हैं जब बुरा वक़्त आता है तो अपना साया भी छोड़ कर चला जाता है. जब इनका भी बुरा वक़्त आया तो इनके शोहरत के सभी सहयोगियों ने इनका साथ छोड़ दिया सिवाए इनके जिगरी दोस्त सी. रामचन्द्र , ओम प्रकाश और गीतकार राजिंदर कृष्ण को छोड़कर जो उनसे मिलने उनकी चॉल में जाया करते थे. भगवान दादा की 4 फरवरी 2002 को दादर स्थित उनके आवास पर दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई.