नसीम बानो की ज़िन्दगी की दास्तान: हिंदी सिनेमा की नंबर 1 सुपरस्टार

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By Mohammad Shameem Khan

हिंदी सिनेमा के इतिहास पर जब भी बात की जाएगी तब हमें ऐसे अभिनेता और अभिनेत्रियों की लम्बी क़तार मिल जाएगी जिन्होंने हिंदी सिनेमा में अपना एहम योगदान दिया.  इन अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के बारे में आज की युवा पीढ़ी ज़रा कम ही जानती है. आज हम 40  के दशक की एक ऐसी अभिनेत्री की बात करेंगे जिन्होंने अपनी ख़ूबसूरती और दिलकश अदाओं से दर्शकों को दीवाना बना रखा था वो भी तब जब वो दौर ब्लैक एंड वाइट सिनेमा का था. सोचिये ज़रा अगर वह आज के वक़्त में होतीं तो दर्शकों पर क्या कहर ढा रही होतीं. उस वक़्त पर उन्हें ब्यूटी क्वीन कहा जाता था, नाम था उनका नसीम बानो.

नसीम बानो
तस्वीर स्रोत-सोशल मीडिया

नसीम बानो की पैदाइश शाही परिवार में हुई थी

नसीम बानो की पैदाइश हुई 04 जुलाई 1916 को पुरानी दिल्ली के कलाकारों और मनोरंजनकर्ताओं के ख़ानदान में हुआ था, पैदाइश के वक़्त उनका नाम रखा गया रोशन आरा बेगम. नसीम बानो की वालिदा या अम्मी का नाम छमियान बाई था जिन्हे शमशाद बेगम के नाम से भी जाना जाता था. वह अपने ज़माने की मशहूर गायिका थीं और उनके वालिद यानी कि पिता जी हसनपुर के नवाब अब्दुल वहीद खान थे, नवाब होने की वजह से उनके पास दौलत की कोई कमी नहीं थी इसी वजह से  नसीम बानो की परवरिश शाही अंदाज़ में हुई और स्कूल में पढ़ने के लिए वह पालकी से जाया करती थीं और वह इतनी खूबसूरत थीं कि उन्हें एक बार कोई देख लेता था तो उनके खूबसूरत चेहरे से नज़र हटाना मुश्किल हो जाता था, उनके वालिदा ने उन्हें बिलकुल फूलों की तरह पाला था. उन्हें किसी की नज़र ना लग जाये इस वजह से वह हमेशा परदे में रहा करती थी. नसीम बानो ने अपनी पढाई क्वीन मैरी हाई स्कूल दिल्ली से पूरी की थी.

नसीम बानो की माँ छमियान बाई नहीं चाहती थीं कि उनकी बेटी अदाकारा बने

नसीम बानो की माँ की दिली तमन्ना थी कि उनकी बेटी पढ़ लिख कर डॉक्टर बने, लेकिन नसीम हमेशा से ही एक अदाकारा बनना चाहती थीं, दरअसल अदाकारा बनने की उनकी तमन्ना परदे पर अपनी पसंदीदा एक्ट्रेस रूबी मेयर्स (सुलोचना) को देखकर जागी थी. लेकिन नसीम की माँ उनकी इस इच्छा के बिलकुल ख़िलाफ़ थीं. एक बार की बात है नसीम बानो अपनी माँ के साथ बॉम्बे आयी हुई थीं तो उन्होंने अपनी माँ से फ़िल्म की शूटिंग देखने की ज़िद की. बच्चों की ज़िद के आगे ज़्यादातर माँ बाप झुक ही जाते हैं नसीम की माँ को भी अपनी बेटी की ज़िद के आगे झुकना पड़ा और वह उन्हें फ़िल्म ‘सिल्वर किंग’ (1935) की शूटिंग दिखाने ले गयीं और इस फ़िल्म की शूटिंग देखने के बाद तो नसीम ने ये ठान ही लिया कि उन्हें अब एक्ट्रेस ही बनना है. जब वह फ़िल्म की शूटिंग देखने गयीं तब ही सेट पर सब उनकी ख़ूबसूरती को देख कर दंग रह गए और उन्हें फ़िल्म में काम करने का ऑफर मिल गया लेकिन नसीम बानो की माँ ने फ़िल्म का ऑफर यह कह कर ठुकरा दिया कि नसीम अभी बच्ची है.

फ़िल्म ख़ून का ख़ून का पोस्टर: नसीम बानो की पहली फ़िल्म
PC: Internet

जब नसीम को मिली जद्दोजहद से उनकी पहली फ़िल्म

लेकिन फ़िल्म इंडस्ट्री में नसीम बानो की खूबसूरती के चर्चे होने लगे. इसी दौरान फ़िल्म निर्माता निर्देशक सोहराब ने भी नसीम बानो की ख़ूबसूरती के चर्चे सुने और वह अपनी फ़िल्म ‘ख़ून का ख़ून’ के लिए नयी अभिनेत्री की तलाश कर रहे थे उन्होंने अपनी फ़िल्म का प्रस्ताव नसीम बानो के लिए भेजा लेकिन उनकी माँ ने इंकार कर दिया, जब नसीम बानो को पता चला कि उन्हें फ़िल्म का ऑफर आया था और उनकी माँ ने मना कर दिया है तो उन्हें बहुत ग़ुस्सा आया उन्हें उनका सपना टूटता हुआ लगा.  वह किसी भी क़ीमत पर फ़िल्म में काम करना चाहतीं थी इसीलिए उन्होंने भूक हड़ताल कर दी.  आख़िरकार उनकी माँ को बेटी की ज़िद के आगे झुकना पड़ा और उन्होंने सोहराब मोदी को फ़िल्म के लिए ‘हाँ’ कह दी.

इस तरह से 16  साल की उम्र में नसीम बानों के फ़िल्मी करियर का आगाज़ हुआ. फ़िल्म ख़ून का ख़ून की सफलता के बाद फिर नसीम ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा इस फ़िल्म के ज़रिये उनकी शोहरत पूरे देश में फैल गयी, उन्हें एक से बढ़कर एक फ़िल्मों के ऑफर आने लगे. कहते हैं कि नसीम फ़िल्मों में एक्टिंग करने के साथ-साथ अपनी पढाई पूरी करना चाहती थी इसके लिए जब वह स्कूल गयीं तो स्कूल के प्रिंसिपल ने यह शर्त रखी कि पढाई के दौरान वह फ़िल्मों में काम नहीं कर सकतीं.  फ़िल्मों में काम ना करना नसीम को मंज़ूर नहीं था इसलिए उन्होंने अपनी पढाई छोड़ दी और हमेशा के लिए फ़िल्मों की ही होके रह गयीं. चूँकि नसीम दिल्ली की रहने वालीं थी और मुंबई में उनका कोई घर नहीं था इसलिए एक तरकीब निकली गयी कि वह सोहराब मोदी के घर रहकर फ़िल्मों में काम करें जब तक वह अपना घर नहीं खरीद लेतीं, इस दौरान उन्होंने सोहराब मोदी के प्रोडक्शन हाउस के साथ लम्बे वक़्त के लिए एक कॉन्ट्रैक्ट साइन कर लिया.

उसके बाद नसीम बानो ने सोहराब मोदी के साथ कई फ़िल्मों में काम किया जिनमें ख़ान बहादुर (1937), तलाक़ (1938), मीठा ज़हर और बसंती (1938) जैसी फ़िल्मों में एक्टिंग करने के बाद उन्हें वह फ़िल्म मिली जिसने उन्हें शोहरत की बुलंदियों पर पंहुचा दिया. वह फ़िल्म थी ‘पुकार’ जोकि 1939 में रिलीज़ हुई थी इस फ़िल्म में उन्होंने मल्लिका- ए- हिंदुस्तान, नूरजहां की भूमिका निभाई थी. कहतें हैं कि इस फ़िल्म की तैयारी के लिए वह हर दिन घुड़सवारी करती थीं और गाना सीखती थीं. इस फ़िल्म को कम्पलीट होने में पूरा एक साल का वक़्त लग गया लेकिन जब यह फ़िल्म रिलीज़ हुई तो नसीम की शोहरत में चार चाँद लग गए.  फ़िल्म में उनकी ख़ूबसूरती और एक्टिंग के लोग दीवाने हो गए.  फ़िल्म में उनका गया और उन्ही पर फिल्माया गया गीत – ज़िन्दगी का साज़ भी क्या साज़ है इस गीत से उनकी लोकप्रियता में ज़बरदस्त इज़ाफ़ा हुआ. सोहराब मोदी, चंद्रमोहन जैसे स्टार से सजी ये फिल्म जहांगीरी इन्साफ पर बनी थी, इस फ़िल्म जिस शान-ओ-शौक़त से उन्होंने अपना किरदार निभाया मजाल है कि किसी ने भी उन्हें मल्लिका-ए- हिंदुस्तान नूर जहाँ ना माना हो. यह फिल्म सिर्फ नसीम बानो के नाम से ही जानी गयी.  

Naseem Banu
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फ़िल्म पुकार की सफलता के बाद नसीम और सोहराब मोदी के रिश्ते में आयी खटास

फ़िल्म पुकार के बाद तो बड़े बड़े फिल्म स्टूडियो ने उन्हें एप्रोच किया कि वह उनकी फ़िल्मों में काम करें लेकिन वह सोहराब मोदी के साथ कॉन्ट्रैक्ट में बंधी होने की वजह से दूसरे प्रोडक्शन हाउस की फिल्में नहीं कर पाईं क्योंकि सोहराब मोदी ने उन्हें कॉन्ट्रैक्ट मुक्त करने से इंकार कर दिया था इस वजह से उनके रिश्तों में खटास भी आ गयी. 1940  में इनकी एक और फ़िल्म रिलीज़ हुई जिसमें इनके किरदार का नाम भी नसीम ही था.  पुकार के बाद तो बड़े बड़े फ़िल्म स्टूडियो ने उन्हें एप्रोच किया कि वह उनकी फ़िल्मों में काम करें लेकिन वह सोहराब मोदी के साथ कॉन्ट्रैक्ट में बंधी होने की वजह से दूसरे प्रोडक्शन हाउस की फ़िल्में नहीं कर पाईं क्योंकि सोहराब मोदी ने उन्हें कॉन्ट्रैक्ट मुक्त करने से इंकार कर दिया था इस वजह से उनके रिश्तों में खटास भी आ गयी.

साल 1949 में एक फिल्म आई ‘चांदनी रात’. इसमें नसीम बानो अव्वल अदाकारा थीं. और साथी अदाकार थे श्याम, जो नसीम से यही कोई 10 बरस छोटे. और ये दौर वह था, जब हिन्दी सिनेमा में सुरैया, नूर जहां, नरगिस, मधुबाला, स्वर्ण लता, मुमताज़ शांति जैसी अदाकाराओं के सिक्के चलने लगे थे.  लेकिन नसीम की अहमियत कम न हुई थी. 1950  की फिल्म ‘शीश महल’ सोहराब मोदी के साथ उनकी आखिरी फिल्म साबित हुई, इस फिल्म में वो बिना मेक-अप और साधारण सी में दिखाई दीं जिससे उनकी ख़ूबसूरती और अदाकारी के और चर्चे हुए. सोहर्ब मोदी के प्रोडक्शन हाउस मिनर्वा मूवी टोन से अलग होने के बाद नसीम ने कुछ वक़्त तक सार्को फिल्म कंपनी में काम किया फिर उसके बाद वह फिल्मिस्तान स्टूडियो में चली गयीं जहाँ उन्होंने अशोक कुमार के साथ ‘चल चल रे नौजवान’ में काम किया। 1949  में एक फ़िल्म आयी ‘चांदनी रात’ इसमें नसीम बानो लीड एक्ट्रेस थीं इसमें नसीम के ऑपोज़िट कलाकार थे श्याम जो नसीम से यही कोई दस बरस छोटे रहे होंगे, ये वह वक़्त भी था जब नयी पीढ़ी की अदाकाराएं सिने पटल पर आ गयी थीं जैसे सुरैया, नूर जहाँ, नरगिस, मधुबाला, स्वर्ण लता, मुमताज़ शांति, लेकिन उस वक़्त भी नसीम बानो का जलवा कम नहीं हुआ था.

नसीम बानो की शादी और उनके करियर की अहम फ़िल्में
1940 का दौर नसीम बानो की ज़िन्दगी का सबसे अहम रहा जब उन्होंने अपने बचपन के प्यार एहसान-उल- हक़ से शादी कर ली, एहसान साहब भी फ़िल्मी दुनिया से जुड़े हुए थे लिहाज़ा दोनों ने सोचा क्यों न खुद की एक फ़िल्म कंपनी बनाई जाये और तब बनी ताजमहल पिक्चर्स.  इस बैनर के तहत उजाला (1942), अजीब लड़की (1942), बेगम (1945), मुलाक़ात (1947) और चांदनी रात (1949) जैसी फिल्में बनाई गयीं। तभी हिंदुस्तान का बटवारा हो गया और एहसान-उल-हक़ पाकिस्तान जाकर बस गए लेकिन नसीम ने हिंदुस्तान को चुना, उस दौर में वह कुछ वक़्त के लिए अपने दोनों बच्चों के साथ- सायरा बानो और सुल्तान अहमद के साथ लंदन में भी रहीं, हांलांकि फिल्मों के सिलसिले में मुंबई आना जाना बना रहता था, इसी वजह से सायरा बानो का भी फ़िल्मों में आगाज़ हो गया.  इसके बाद नसीम मुंबई में ही आकर रहने लगीं.

नसीम बानो तस्वीर स्रोत- सोशल मीडिया

पुकार (1939), चल चल रे नौजवान (1944), अनोखी अदा (1948), शीश महल (1950) और शबिस्तान (1951) उनकी कुछ बेहतरीन फिल्मों हैं.  उन्होंने अपने वक़्त के एक्टर्स सोहराब मोदी, चंद्र मोहन, पृथ्वीराज कपूर, त्रिलोक कपूर, अशोक कुमार, श्याम, सुरेंद्र, प्रेम अदीब और रहमान के साथ काम किया.  शबिस्तान की शूटिंग के दौरान अभिनेता श्याम घोड़े से गिर पड़े थे और उनकी मौत हो गयी थी, बाद में उनके बॉडी डबल के साथ फिल्म को शूट करके रिलीज़ किया गया था. हांलांकि उन्होंने कुछ एक्शन और फ़ैन्टैसी फिल्मों में भी काम किया जैसे सिंदबाद जहाज़ी (1952) और बाग़ी (1953), लेकिन ये फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप हो गयी. 1957 की फ़िल्म नौशेरवां-ए-आदिल उनकी आख़िरी फ़िल्म साबित हुई, हांलांकि इसके बाद 1966  में उनकी एक पंजाबी फ़िल्म ‘चडि्डयां दी डोली’ रिलीज़ हुई.

फ़िल्मी दुनिया से अलग होने के बाद भी नसीम बानो फिल्मों से जुड़ी रहीं

साल 1960  में एक ऐसा दौर भी आया जब फिल्म मेकर्स नसीम बानो के घर आते तो थे उनकी बेटी सायरा बानो को अपनी फ़िल्मों में कास्ट करने के लिए, लेकिन नसीम को देख कर अपनी सुध-बुध खो जाया करते थे और उनसे गुज़ारिश करते थे कि उनकी फ़िल्मों में कोई क़िरदार अदा कर दें तो बड़ी मेहेरबानी हो लेकिन नसीम मुस्कुराते हुए मना कर दिया करती थीं. वह नहीं चाहती थी कि कोई भी उनका और उनकी बेटी से कम्पेरिज़न करे यानी कि अदाकारी और ख़ूबसूरती को लेकर दोनों के बीच किसी भी तरह की ग़ैर वाजिब तुलना करे.  अपनी इसी सोच की वजह से नसीम ने फ़िल्मों में काम करना बंद कर दिया।  कहते हैं कि के.आसिफ ने 1960 में नसीम को मुख्य अदाकारा के लिए कोई फ़िल्म का ऑफर दिया था जिसे नसीम ने मना कर दिया था. फ़िल्मों में एक्टिंग ना करने का मतलब यह नहीं कि उन्होंने फ़िल्मों से अपना नाता हमेशा के लिए तोड़ दिया बल्कि फिल्म इंडस्ट्री में उनकी बेटी सायरा बानो के आ जाने के बाद उन्होंने अपने लिए एक नया क़िरदार चुन लिया.  वह ये कि अपनी ख़ूबसूरत बेटी की ख़ूबसूरती में चार चाँद लगाने का, यानि कि सायरा बानो के लिए कपडे डिज़ाइन करने का, सायरा के लिए कपडे डिज़ाइन करने का यह सिलसिला उनकी पहली फिल्म जंगली से लेकर तब तक जारी रहा जब तक वह हिंदुस्तान के अभिनय सम्राट दिलीप कुमार की शरीक- ए- हयात, बनने के कुछ सालों बाद जब तक फ़िल्मों से दूर ना हो गयीं. 

कहा जाता है कि सायरा बानो और दिलीप कुमार की शादी के पीछे नसीम बानो का हाथ था. सायरा जब अपने करियर में ऊँचा मक़ाम हासिल कर रहीं थी इस दौरान उन्हें राजेंद्र कुमार से मोहब्बत हो गयी. राजेंद्र कुमार उस वक़्त शादी शुदा थे और तीन बच्चों के बाप थे, जब यह बात नसीम बानो ओ पता चली तो उन्होंने अपनी बेटी को समझाया लेकिन जब बात नहीं बनी तो नसीम बानो ने दिलीप साहब की मदद ली और उनसे सायरा को समझने के लिए कहा. दिलीप साहब ने जब सायरा बानो को समझने की कोशिश की तो सायरा ने उलटे उन्ही से सवाल कर दिया कि अगर वह राजेंद्र कुमार को छोड़ दें तो क्या वो उनसे शादी कर लेंगे.  उस वक़्त दिलीप कुमार के पास कोई जवाब नहीं था. इस के बाद दिलीप और सायरा की इन मुलाकातों का सिलसिला शुरू हो गया और ये मुलाक़ात मोहब्बत में बदल गयी और 11  अक्टूबर, 1966  को 44  साल के दिलीप कुमार ने 22  साल की सायरा से शादी कर ली. कहते हैं कि नसीम बानो और सुबोध मुख़र्जी को यह शादी करने के लिए काफ़ी फील्डिंग करनी पड़ी थी. ख़ैर, यह शादी काफ़ी क़ामयाब रही और सायरा ने दिलीप का साथ उनकी आख़िरी सांस तक दिया. 

नसीम बानो बेटी सायरा और दामाद दिलीप कुमार के साथ, तस्वीर स्रोत- सोशल मीडिया

18 जून, साल 2002, जब नसीम बानो ने बंबई के अपने घर में आख़िरी सांस ली. उस वक़्त उनकी उम्र 85 बरस से कुछ ऊपर की थीं. यह थी दास्तान भारत की पहली सुपर स्टार नसीम बानो की ज़िन्दगी की.

उनके बेटे सुल्तान अहमद के माध्यम से उनकी परपोती सायशा है.


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