हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है,
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा..
डॉ. अल्लामा इक़बाल का लिखा हुआ ये मक़बूल शेर 1972 में रिलीज़ हुई फ़िल्म पाकीज़ा में इस्तेमाल किया गया था. इस शेर के साथ ही फ़िल्म अपने अंजाम पर पहुँचती है. खैर अब बात करते हैं इस विज़ुअल की…आप तो समझ ही गए होंगे कि यह दृश्य ‘पाकीज़ा’ का है और फ़िल्म के आख़िरी दृश्यों में से एक है दरअसल दूल्हे के लिबास में दिखाई दे रहा यह शख़्स फ़िल्म के हीरो ‘राजकुमार’ नहीं बल्कि ‘धर्मेंद्र’ हैं.
जी हाँ चौकिये नहीं यह मशहूर अदाकार “धर्मेंद्र” हीं हैं, दरअसल जब पाकीज़ा की शूटिंग 1958 में शुरू हुई थी तो पहले तो कमाल अमरोही को फ़िल्म का लीड एक्टर ‘सलीम अहमद ख़ान’ नहीं मिल रहा था तो उन्होंने सोचा कि यह क़िरदार वह ख़ुद निभाएंगे लेकिन कुछ वक़्त के बाद उन्होंने इस बात को जाने दिया और ‘सलीम अहमद ख़ान’ के क़िरदार के लिए ‘अशोक कुमार’ को साइन कर लिया,.
लेकिन जब फ़िल्म जब दस साल के बाद दोबारा शुरू हुई तो उस क़िरदार को निभाने के लिए ‘धर्मेंद्र’ को चुना गया लेकिन कुछ वजहों से उन्हें फ़िल्म से निकल कर यह रोल राज कुमार साहब को दिया गया. धर्मेंद्र के साथ फ़िल्म के कुछ दृश्यों को शूट कर लिया गया था उनमें से ज़्यादातर दृश्य दोबारा शूट कर लिए गए लेकिन कमाल अमरोही ने इस दृश्य को ज्यों के त्यों ही रखा.
बाद में अशोक कुमार ने फ़िल्म में पाकीज़ा के वालिद (पिता) शहाबुद्दीन का क़िरदार निभाया था.
इसी तरह फ़िल्म का आख़िरी गाना ‘आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे’ जब फ़िल्माया जा रहा था तो मीना कुमारी की तबियत इतनी ख़राब थी कि वह ठीक से खड़ी भी नहीं हो पा रहीं थीं तो कमाल अमरोही ने एक तरक़ीब निकाली इस गाने के लिए मीना कुमारी की बॉडी डबल ‘पद्मा खन्ना’ का इस्तेमाल किया और उनके चेहरे को ढक दिया.
उसी वक़्त जब मीना कुमारी की ख़ाला बनी अदाकारा वीणा कुमारी, अपने बहनोई शहाबुद्दीन को देखती हैं तो अपनी भांजी को उसके अपने ही घर में नाचते हुए देख कर सकते में आ जातीं हैं, और ग़ुस्से में कहती हैं -शाहबुद्दीन ! यह तुम्हारा ही लहू है देखो क्या रंग लाया है… इस तरह यह भी सोचा गया कि पाकीज़ा का नाम बदलकर ‘लहू पुकारेगा’ रखा जाये लेकिन कमाल अमरोही को पाकीज़ा जैसी कुव्वत इस नाम में नज़र नहीं आयी इसलिए उन्होंने फ़िल्म का नाम पाकीज़ा ही रहने दिया.
पाकीज़ा फ़िल्म बनाने में कमाल अमरोही को काफी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ा जो सबसे बड़ी दिक़्क़त थी वह थी फाइनेंस.. फण्ड की कमी हो रही थी और कोई भी पैसा लगाने को रेडी नहीं था एक फाइनेंसर बहुत मुश्किलों से मिला भी लेकिन उसने यह शर्त रख दी कि ग़ुलाम मोहम्मद के बनाये हुए गीतों को फ़िल्म से हटाया जाये..
कमाल अमरोही ने जब यह सुना तो उन्होंने सिरे से इंकार कर दिया और कहा कि पाकीज़ा की रूह हैं ग़ुलाम मोहम्मद के बनाए हुए गाने वह किसी भी क़ीमत पर उसे फ़िल्म से नहीं हटा सकते चाहे कुछ भी हो जाये मैं उनके साथ यह नाइंसाफी नहीं करता.. अगर वह ज़िंदा होते तो शायद मैं यह सोच भी लेता. (म्यूज़िक कंपोजर ग़ुलाम मोहम्मद की मौत पाकीज़ा की रिलीज़ से बहुत पहले हो गयी थी).
पाकीज़ा का एक और गीत ‘मौसम है आशिक़ाना’ मीना कुमारी के स्वस्थ्य को देखते हुए मैसूर से कुछ दूरी पर स्थित बर्ड सेंचुरी में फ़िल्माया गया था. अगर आप देखेंगे तो इस गाने में आसमान, चिड़िया, दरिया, पानी की लहरें और पेड़-पौधों को ही फ़िल्माया गया था.. मीना की सिर्फ झलक ही दिखाई गयी थी.
फ़िल्म में ग़ुलाम मोहम्मद के गीत के साथ साथ कुछ ठुमरी भी थीं जो फ़िल्म के बैक ग्राउंड में बजती हैं जिसका संगीत नौशाद साहब ने दिया था. वह ठुमरियां कुछ यूँ हैं – नजरिया की मारी (राजकुमारी), मोरा साजन (वाणी जयराम), और कौन जला (परवीन सुल्ताना). फ़िल्म में एक ग़ज़ल नसीम चोपड़ा की आवाज़ में है (ये धुआँ कहाँ से उठता है, एक तो दिल के जहाँ से उठाता है) ओरिजनली इस ग़ज़ल को मेहँदी हसन ने गया है. नसीम चोपड़ा की आवाज़ में यह ग़ज़ल बैकग्राउंड में बजती है जब मीना कुमारी अपनी सहेली को राज कुमार के द्वारा लिखे हुए ख़त के बारे में बताती है.
मीना कुमारी ने वैसे तो बहुत सारी फिल्मों में काम किया लेकिन पाकीज़ा ने जो उन्हें मक़ाम दिया वह शायद ही किसी फ़िल्म से उन्हें मिला हो…पाकीज़ा और मीना की याद हम सभी के दिलों में हमेशा ताज़ा रहेगी.. जब तक यह दुनिया रहेगी मीना और पाकीज़ा लोगों के दिलों में हमेशा ज़िंदा रहेंगी.
फ़रिश्ते भी देखें तो हो जाएँ पागल.
वो पाकीज़ा मूरत हो तुम बहुत ख़ूब-सूरत हो तुम..
ताहिर फ़राज़