फ़िल्म तो हम सभी देखते हैं लेकिन, जब भी हम हिंदी सिनेमा के पाँचवे और छठे दशक की बात करते हैं तो ज़ेहन में पहली तस्वीर राज – देव और दिलीप की तिकड़ी की तस्वीर उभर के आती है लेकिन इनके साथ साथ कुछ ऐसे कलाकारों ने भी उस दौर में क़ामयाबी हासिल की जो चौकाने वाली थी. साल 1951 में रिलीज़ हुई ‘अलबेला’ की सफलता उसी की एक बानगी है. गीता बाली जैसी ख़ूबसूरत अदाकारा के साथ भगवन दादा को इश्क़ लड़ाते हुए देखकर दर्शक निसार हो गए थे.
बलराज साहनी ने अपनी आत्मकथा ‘मेरी फ़िल्मी आत्मकथा’ में लिखा है कि भले ही दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर ने लोकप्रियता के चरम को छुआ हो लेकिन गरीब- किसान और मजदूर वर्ग में जो लोकप्रियता भगवन दादा ने अपनी फ़िल्म अलबेला से अर्जित की थी वह किसी और कलाकार को मयस्सर नहीं हुई. इस की कहानी, स्क्रीन प्ले, निर्देशन और प्रोड्यूस ख़ुद भगवन दादा ने ही किया था. इसके मुख्य कलाकार तो ख़ैर वह थे ही. भगवन आर्ट प्रोडक्शन के तहत बनी यह फ़िल्म, बाद में तमिल भाषा में डब करके रिलीज़ की गयी थी और सुपर हिट हुई थी. इसके गीत काफ़ी मक़बूल हुए थे, ख़ासकर “शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो” लोग आज भी गुनगुनाते हैं. इस गीत को लता मंगेशकर और चितलकर ने आवाज़ दी थी जबकि संगीत सी. रामचंद्र का था.
सुनहरे दौर की एक जोड़ी जिसकी चर्चा बहुत कम होती है और वह जोड़ी है देव आनंद और गुरु दत्त की. जी हाँ, देव आनंद और गुरु दत्त अपने स्ट्रगल के दौर से बहुत अच्छे दोस्त थे. दोनों दोस्तों ने एक दूसरे से यह वादा किया था कि जिसको पहले सफलता मिल जाएगी वह अपने दोस्त को मौक़ा देगा. जैसे अगर गुरु दत्त पहले सफलता अर्जित करते हैं डायरेक्टर के तौर पर तो वह देव आनंद को अपनी फ़िल्म में मौक़ा देंगे और अगर देव आनंद पहले सफल होते हैं तो वह गुरु को डायरेक्टर बनाएंगे. गुरु दत्त एक्टर नहीं बनना चाहते थे उन्हें डायरेक्शन में शुरू से ही दिलचस्पी थी.
तो कहानी में मोड़ यूँ आया कि देव आनद को पहले सफलता मिल गयी और जब उन्होंने अपना प्रोडक्शन हाउस शुरू किया तो उन्होंने अपना वादा याद रखा और अपने प्रोडक्शन हाउस की दूसरी फ़िल्म में अपने दोस्त गुरु दत्त को फ़िल्म डायरेक्टर बनने का मौक़ा दिया. (देव आनंद से अपना प्रोडक्शन हाउस – नवकेतन फ़िल्म्स अपने बड़े भाई चेतन आनंद के साथ 1949 में शुरू किया था जिसकी पहली फ़िल्म अफ़सर (1950) थी जिसका डायरेक्शन ख़ुद चेतन ने किया था.) गुरु दत्त की डायरेक्शन में बनने वाली पहली फ़िल्म बाज़ी (1951) थी. इस के लिए गुरु दत्त ने अपना सब कुछ झोंक दिया. फ़िल्म बाज़ी अपने ज़माने की एक ट्रेंड सेटर थी और सही मायनों में आज़ाद भारत के दिशाहीन नौजवान के ख़्वाहिशों की शिनाख़्त करती थी.
हिंदी सिनेमा में हमेशा से ही एक विषय पर बहुत सी फ़िल्में बनती रही हैं और उनमें से कुछ फ़िल्मों को सफलता भी ख़ूब मिली. एक कहानी जो हमेशा से ही हिंदी सिनेमा की पसंदीदा रही है वह है अमीर और गरीब की प्रेम कहानी. कभी लड़का अमीर होता तो लड़की गरीब और कभी लड़की अमीर और लड़का गरीब… और उस पर उफ़्फ़्फ़ यह ज़ालिम समाज…
गरीब और अमीर की प्रेम कथा को जिस सहजता से हृषिकेश मुख़र्जी ने अनाड़ी (1959) में चित्रित किया है वैसा कम ही हुआ है. फ़िल्म अनाड़ी अपने वक़्त की बेहद क़ामयाब फ़िल्म रही है. यह राज कपूर की उन बेहतरीन फिल्मों में से एक है जिसमें आर. के. फ़िल्म्स की बहार उनको बहुत ख़ूबसूरत तरीक़े से पेश किया गया है. इस फ़िल्म का संगीत शंकर जयकिशन ने तैयार किया था और इस फ़िल्म का एक गीत अपने आप में जीवन का सार समेटे हुए है. इस फ़िल्म को तमाम पुरुस्कारों से सम्मानित किया गया था.
इस फ़िल्म में मोतीलाल ने नूतन के अंकल का क़िरदार निभाया है, लेकिन असल ज़िन्दगी में वह नूतन की मां शोभना समर्थ के साथ रहते थे. इसी फ़िल्म के ऑफिस के सीन में अदाकार मुकरी कहते हैं, “आज का काम कल करो, कल का काम परसों…” इस संवाद को बाद में हृषिकेश मुखर्जी ने 1979 में अपनी फ़िल्म गोलमाल (1979) में दोहराया था.