(Film- JoyLand: A Review)
पाकिस्तानी फ़िल्म ‘जॉयलैंड‘ देखी तो दिमाग में सबसे पहला सवाल यह आया कि क्या हम कभी अपना जॉयलैंड ढून्ढ पाएंगे ? यह एक बहुत बड़ा सवाल है जिसका इम्पैक्ट यह फ़िल्म अपने दर्शकों पर छोड़ने में क़ामयाब रही है. 2 घंटे की यह फ़िल्म ख़ामोशी से आपके दिल में जगह बनाती चली जाएगी और आपको पता ही नहीं चलेगा कि इस फ़िल्म के ज़रिये आपके दिल के उन तारों को छेड़ दिया गया है जिसे आप शायद टालते आये हों, वह यादें, इच्छाएं, दिल्लगी जिन्हे आपने अपने दिल के तहख़ाने में दबा कर उन पर ताला डाल दिया हो. फ़िल्म देखकर आपको लगा हो अरे! यह कहीं मैं तो नहीं. फ़िल्म के हर एक कैरेक्टर का ख़ालीपन आप दिल से महसूस करेंगे, उन क़िरदारों के साथ आप ख़ुद को महसूस करेंगे.
फ़िल्म की कहानी का एक क़िरदार हैदर (अली जुनेजो) की नई लेकिन ख़ुफ़िया नौकरी एक ट्रांसजेंडर बीबा (अलीना ख़ान) के लिए बैकग्राउंड डांसर के रूप में है. हैदर के परिवार में उसके वालिद साहब (पिताजी) हैं जो व्हील चेयर पर रहते हैं हैदर का एक बड़ा भाई-भाभी और उनकी तीन बेटियां हैं. हैदर शादीशुदा है और बेऔलाद है. फ़िल्म जैसे जैसे आगे बढ़ती है, हैदर की नज़दीकियां उनकी बॉस, बीबा के साथ बढ़ती जाती हैं लेकिन इस नज़दीकी के नतीजे में उसे उसकी सेक्सुअलिटी पता चलती है. फ़िल्म में हर कैरेक्टर की परते वक़्त के साथ परदे पर खुलती हैं. हैदर की बीवी मुमताज़ (रस्ती फ़ारूक़) जो कि हैदर की जॉब लगने से पहले ख़ुशनुमा नौकरीपेशा ख़ातून थीं लेकिन हैदर की जॉब के बाद उसे घर पर रहने में मजबूर कर दिया जाता है.
फ़िल्म जॉयलैंड जब गंभीर पारिवारिक जागीर पर वापस आती है तो हमारा दुखी होना लाज़मी होता जाता है. जैसे-जैसे परिवार के लोगों को एहसास होता है कि वे भी अपनी पसंद खुद बनाना चाहते हैं, हमारा ध्यान हैदर से हटकर महिलाओं, ख़ासकर बहुओं की तरफ हो जाता है, जो अपने व्यवहार के दबाव से ज़्यादा स्पष्टवादी और थकी हुई होती हैं. जब फ़ारूक़ और गिलानी को अपने पात्रों की निराशाओं के बारे में बोलने का मौका मिलता है, तो उनका धार्मिक ग़ुस्सा स्क्रीन पर धूम मचा देता है.
जॉयलैंड पाकिस्तान के एक शहर के कुछ क़िरदारों की ज़िन्दगी पर आधारित है, इसका टाइटल लाहौर के एक थीम पार्क से लिया गया है. लेकिन इस दुनिया के हर घर की ज़िन्दगी को प्रस्तुत करने में सशक्त है. कहानी कुछ दर्शकों को जानी पहचानी सी लग सकती है, क्योंकि इस तरह के क़िरदार हमारे आस पास ही रचे बसे होते हैं. लेकिन मुझे पूरा यक़ीन है कि इस फ़िल्म की पटकथा और संवाद इतने अनोखे थे कि यह हर एक दिल को छू जायेंगे.
फ़िल्म जॉयलैंड की सिनेमेटोग्राफी ज़बरदस्त है जो हर क़िरदार के जूनून को ख़ूबसूरती से दिखाती है और एक्टिंग के हर छोटी डिटेल्स को कैप्चर करने में कैमरे का फोकस अलग तरह से फ़िल्माता है. शॉट इतने रंगीन और दिलकश हैं कि वे मेरे दिल को ख़ुशी के आंसुओं से भिगो देते हैं. सच कहूं तो मुझे इस फ़िल्म के हर फ्रेम से और हर पल से बेहद प्यार हो गया.
और अब बात करते हैं फ़िल्म के सबसे मज़बूत हिस्से की यानी कि अदाकारों के अदाकारी की. अदाकारी और क़िरदार का निर्माण इतना नेचुरल है जैसे वह दर्शकों में एक नवेली कोपल सी अंकुरित हो जाती है. फ़िल्म के हर एक अदाकार की आवाज़ का उतर चढ़ाव, चेहरे के एक्सप्रेशन और उनके ऑन स्क्रीन ऑरा ने मेरे दिमाग़ को कई हिस्सों में तोड़ दिया और मुझे उनकी अदाकारी के माध्यम से ज़िन्दगी जीने की कला की गहराई का एहसास कराया.
मुमताज़ जिसका क़िरदार रस्ती फ़ारूक़ ने निभाया है, मुझे तो वह एक असाधारण अदाकारा लगीं, इतने सारे सपने, अधूरी चाहतें और सिर्फ एक ज़िन्दगी, हर एक पल में उन्होंने अपने इमोशंस के ज़रिये स्क्रीन पर सिरहन पैदा कर दी. वह अपनी आँखों के ज़रिये एक औरत की दास्ताँ कह रहीं थीं, जोकि बहुत खूबसूरत थीं.
अब बात फ़िल्म के सबसे एहम क़िरदार, बीबा (अलीना ख़ान) की. अदाकारी में एक ट्रांस की भूमिका निभाना हमेशा से ही एक मुश्किल काम रहता है, भले ही आप ट्रांस क्यों ना हो क्योंकि आप आप एक ऐसे इंसान का चरित्र निभा रहे होते हो जिसे इस दुनिया में हर किसी के लिए महसूस करना कठिन है. यह क़िरदार इस लिए भी बहुत अहम है क्योंकि परदे पर अब तक ट्रांस का क़िरदार मर्द या औरत ही निभाते आये हैं. इससे पहले अलीना ख़ान ने 2019 में ‘डार्लिंग’ नाम की फ़िल्म में एक ट्रांस का ही क़िरदार निभाया था, इस फ़िल्म में उनकी यह भूमिका जैसे उनकी पिछली फ़िल्म का विस्तार है. अलीना ने बीबा का क़िरदार बहुत शिद्दत के साथ निभाया है. कहानी बताना और उस कहानी को जीना उस अलग क़िरदार सबसे मुश्किल हिस्सा था, अलीना ख़ान बस कड़ी रही और शायद हर उस इंसान तक अपना दर्द और ज़िन्दगी बाँटने में सफल रहीं. कम से कम मैंने तो महसूस किया.
फिर हैदर (अली जुनेजो) का क़िरदार आता है, उसने ज़िन्दगी की मुश्किलों के बारे में बताया, उनका क़िरदार दिल के उस हिस्से से मुलाक़ात करवाता है जो कई ज़माने से ख़ामोश था, कहीं चुपचाप बैठा था. अली ने हैदर का क़िरदार जिस तरह से निभाया है विशेषकर रोमांटिक सीन्स में क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. उनकी सॉफ्ट इमेज दिल को छू गयी.
मेरे पास बताने और समझने के लिए शायद शब्द कम पड़ जाये कि इस फ़िल्म के इमोशंस ने मेरे दिल की तलहटी में बसे गर्द को खुरच दिया है. इस फ़िल्म के हर एक क़दम पर सपने, प्यार, ख़ुशी, बेवफाई, रोमांस और इत्मीनान के इमोशंस को अलग अलग तरीकों से दिखाया गया है. मैं पूरी तरह से आपका एहसानमंद रहूँगा, सैम सादिक़.
कला के इस टुकड़े को बैन करना मेरे हिसाब से पाकिस्तानी फ़िल्म इंडस्ट्री के लिए सबसे बड़ी भूल हो सकती है.
Note- जॉयलैंड अमेज़न प्राइम पर रेंट पर देखी जा सकती है.