इतना सन्नाटा क्यों है भाई ? फ़िल्म शोले का ये डायलॉग तो याद ही होगा क्योंकि ये डायलॉग काफी मशहूर हो गया था. इस संवाद को इतनी ख़ूबसूरती से अदा करने वाले अदाकार ए. के हंगल (अवतार किशन हंगल) को दर्शकों ने फ़िल्मों में दादा, चाचा, पिता या कई और तरह के अभिनय में देखा और सराहा है.
चाहे बावर्ची फ़िल्म में जया भादुरी के बड़े मामा की भूमिका हो, चितचोर में ज़रीना वहाब के पिता की भूमिका हो, अवतार में राजेश खन्ना के बुज़ुर्ग मित्र की भूमिका, शौक़ीन में इन्दर सेन की भूमिका, नमक हराम में बिपिनलाल पाण्डे की, शोले में इमाम साहब की भूमिका जिसका एक लौटा बेटा गब्बर सिंह के हाथों मारा जाता है, मंज़िल में अनोखेलाल की भूमिका हो, आमिर खान की बहुचर्चित फ़िल्म लगान में गांव के सबसे बुज़ुर्ग की भूमिका या फिर धारावाहिक आहट में बुज़ुर्ग भूत की भूमिका में वह ख़ूब जमे. उन्होंने 1966 से 2005 तक के करियर में लगभग 225 हिन्दी फ़िल्मों में अपनी अदाकारी के जौहर दिखाए.
ए. के हंगल ने 52 साल की उम्र में अपने करियर की शुरुवात 1966 में बसु भट्टाचार्य की फ़िल्म तीसरी क़सम और शागिर्द के साथ अपने हिंदी फ़िल्म करियर की शुरुआत की. 1970, 1980 और 1990 के दसक में वह चाचा मामा, पिता या कभी-कभी सर्वोत्कृष्ट विनम्र और उत्पीड़ित बूढ़े के क़िरदार में नज़र आये.
सात हिंदुस्तानी (1969), सारा आकाश (1969), गुड्डी (1971), मेरे अपने (1971), नादान (1971), बावर्ची (1972), जवानी दीवानी (1972), हीरा पन्ना (1973),अभिमान (1973), जोशीला (1973), नमक हराम (1973), इश्क़ इश्क़ इश्क़ (1974), आपकी क़सम (1974), कोरा कागज़ (1974), सलाखें (1975), दीवार (1975), आँधी (1975), बालिका वधू (1976), चितचोर (1976), ज़िन्दगी (1976), पहेली (1977), आइना (1977), बेशरम (1978), स्वर्ग नर्क (1978), सत्यम शिवम सुंदरम (1978), ख़ानदान (1979), मीरा (1979), जुदाई (1980), हम पांच (1980) जैसी फ़िल्मों में उनकी प्रमुख भूमिकाओं ने दर्शकों का मन मोह लिया था.
वह एक चरित्र अभिनेता के रूप में राजेश खन्ना के साथ क़रीब 16 फ़िल्मों का हिस्सा थे, जैसे बावर्ची, आप की कसम, अमर दीप, नौकरी, प्रेम बंधन, थोड़ी सी बेवफाई, फिर वही रात, कुदरत, आज का एम.एल.ए आदि.
बाद के वर्षों में ए. के हंगल, तेरे मेरे सपने (1997), शरारत (2002), और लगान में उनकी चरित्र भूमिकाएं निभाते नज़र आये. फ़िल्मों में उन्होंने बहुत बड़ी संख्या में चरित्र भूमिकाएँ निभाई हैं, ज्यादातर सकारात्मक, दुर्लभ अपवादों के साथ जहाँ उनकी नकारात्मक भूमिकाएँ प्रसिद्ध हुईं. उन्होंने 2001 में गुल बहार सिंह द्वारा निर्देशित फ़िल्म, दत्तक (द एडॉप्टेड) में भी काम किया. निर्माता देबिका मित्रा ने इंदर सेन की भूमिका के लिए मदन पुरी को साइन किया था, लेकिन एक दोस्त ने सलाह दी कि ए.के. हंगल एक बेहतर विकल्प होंगे और वाक़ई ए. के. हंगल ने इस फ़िल्म में बेहतरीन काम किया.
8 फरवरी 2011 को, ए. के हंगल ने मुंबई में अपनी समर लाइन के लिए फ़ैशन डिज़ाइनर रियाज़ गंजी के लिए व्हीलचेयर में रैंप वॉक किया था.
ए. के हंगल ने मई 2012 में टेलीविजन शृंखला मधुबाला – एक इश्क एक जूनून में वह नज़र आये, जिसमें उनका कैमियो था. मधुबाला – एक इश्क एक जूनून भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे होने पर एक श्रद्धांजलि थी. हंगल को दिखाने वाला एपिसोड कलर्स पर 1 जून को 22:00 बजे प्रसारित हुआ. 2012 की शुरुआत में, हंगल ने एनीमेशन फ़िल्म कृष्ण और कंस में राजा उग्रसेन के चरित्र के लिए भी अपनी आवाज़ दी, जो 3 अगस्त 2012 को रिलीज़ हुई थी. यह उनकी मृत्यु से पहले उनके करियर का अंतिम काम था. उग्रसेन का उनका चित्रण समीक्षकों द्वारा बहुत सराहा गया.
ए. के हंगल (अवतार किशन हंगल) की पैदाइश 1 फरवरी, 1914 को सियालकोट में हुई थी. उनका जन्म एक कश्मीरी पंडित परिवार में हुआ था, उन्होंने अपना बचपन और युवावस्था पेशावर में बितायी जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, जहाँ वह थिएटर किया करते थे. उनके पिता का नाम पंडित हरि किशन हंगल था, उनकी माता का नाम रागिया हुंदू था. उनकी दो बहनें थीं- बिशन और किशन. उनकी शादी आगरा की मनोरमा डार से हुई थी.
अपनी शुरुवाती ज़िन्दगी में ए. के हंगल दर्ज़ी का काम किया करते थे. वह 1929 से 1947 तक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे. वह 1936 में पेशावर में एक थिएटर समूह श्री संगीत प्रिया मंडल में शामिल हो गए और 1946 तक अविभाजित भारत में कई नाटकों में अभिनय करते रहते थे.
उनके पिता की सेवानिवृत्ति के बाद, परिवार पेशावर से कराची चला गया. पाकिस्तान में 3 साल की जेल के बाद 1949 में भारत के विभाजन के बाद वे बंबई चले आये. वह बलराज साहनी और कैफ़ी आज़मी के साथ थिएटर ग्रुप इप्टा से नाटकों का मंचन किया करते थे.
भारत सरकार ने हंगल को 2006 में पद्म भूषण से सम्मानित किया था. अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी वक़्त में इन्हे आर्थिक तंगी से जूझना पड़ा. 26 अगस्त 2012 को वो इस फ़ानी दुनिया से हमेशा के लिए रुख़सत हो गए. उनके निधन पर शबाना आज़मी ने ट्विटर पर लिखा था – एक युग की समाप्ति. वाक़ई उनके जैसा कलाकार को खोना हिंदी सिनेमा के लिए एक बहुत बड़ी क्षति थी.
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