‘हुस्न बानो’ के हुस्न के आगे किसी की भी नहीं चलती थी: 50 के दशक में ख़ूब नाम था.

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By Mohammad Shameem Khan

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आज आपको एक ऐसी अदाकारा की दास्ताँ सुनाएंगे जिनके हुस्न के आगे अच्छे अच्छे पानी भरते नज़र आते थे नाम था इनका हुस्न बानो. ये कहानी शुरू होती है 30  के दशक की अभिनेत्री शरीफा से जो कलकत्ता की कोरिंथियन थिएटर कंपनी में काम करती थीं यहां पर उनकी मुलाक़ात प्रसिद्ध उर्दू लेखक आगा हसर कश्मीरी से हुई और उन्हें एक दूसरे से प्यार हो गया था. थिएटर कंपनी के एक प्रदर्शन के दौरान चरखारी के महाराजा शरीफा ने उनका अभिनय देखा और उन पर फ़िदा हो गए.  उन्होंने कलकत्ता की पहले से क़र्ज़ में डूबी उस थिएटर कंपनी को 40 लाख़ में खरीद लियाइस तरह से कंपनी खरीदने से आग़ा और शरीफा उनके लिए काम करने लगे. आग़ा और शरीफा इस बात से बिलकुल भी खुश नहीं हुए और उन दोनों ने थिएटर कंपनी से इस्तीफ़ा दे दिया. आग़ा कश्मीरी फिल्मों के लिए लिखने लगे और और शरीफा ने फिल्मों में अभिनय करना शुरू कर दिया.

उसी दौरान मीनू कूपर नाम का एक जादूगर कलकत्ता आया था अपनी जादूगरी दिखाने आया था (अभिनेता गायक मीनू कपूर अलग हैं) अदाकारा शरीफा उनके प्यार में गिरफ्तार हो गयीं और उन दोनों ने शादी कर ली. मीनू कूपर विदेश जा रहे थे अपने मैजिक शो करने शरीफा भी उनके साथ गयीं.  वो दोनों एक साल साथ तक साथ रहें फिर मीनू कूपर ने बेवफाई की और शरीफा को सिंगापूर में छोड़ कर वापस इंडिया आ गए. मीनू कूपर शायद बच्चा नहीं चाहते थे क्योंकि जब वो शरीफा को ग़ैर मुल्क में छोड़ कर आये उस वक़्त वो प्रेग्नेंट थीं.

हुस्न बानो की पैदाइश 8 फरवरी 1919 को सिंगापुर में हुई थीं, जब वो पैदा हुई तो उनकी माँ शरीफा ने उनका नाम ‘रोशन आरा’ रखा क्योंकि वह अपनी माँ की ज़िन्दगी में एक रोशनी बन के आयी थीं. अपनी माँ की तरह ही हुस्न बानो ने अपने करियर की शुरुवात न्यू थिएटर की नितिन बोस के डायरेक्शन में बनने वाली फिल्म ‘डाकू मंसूर’ से की. इस फिल्म में मुख्य भूमिका के एल. सहगल और उमा शशि ने निभायी थीं.  इस फिल्म में पृथ्वी राज कपूर, पहाड़ी सान्याल, नेमो और हुस्न बानो थे. हुस्न बानो की माँ अपनी बेटी को मिलने वाली तनख़्वाह से खुश नहीं थीं इसलिए वह हुस्न बानो को लेकर मुंबई आ गयीं. उन्होंने हुस्न बानो की तालीम और तरबियत का पूरा ध्यान रखा उन्होंने हुस्न बानो का स्कूल में एडमिशन करवा दिया.  हुस्न बानो ने 12 वीं तक पढाई की थीं और उन्हें अंग्रेजी, गुजराती, मराठी, उर्दू, बंगाली और हिंदी बहुत अच्छी तरह से आती थी. वह गायन और डांस करने में बहुत अच्छी थीं. हुस्न बानो ने पढाई के साथ साथ फिल्मों में भी काम करना जारी रखा लेकिन उन्हें ज़्यादातर बी और सी ग्रेड की फिल्में ही मिलीं जिसमें ज़्यादातर स्टंट फिल्में थीं. वह हंटरवाली नादिया के बाद वो एक स्टंट अभिनेत्री के रूप में प्रसिद्ध हुईं.

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हुस्न बानो ने अपनी पहली फिल्म के बाद, फ़ौलादी मुक़्क़ा (1936), जय भारत (1936), वसंत बंगाली (1938), तक़दीर की टोपी (1939), फ्लाइंग रानी (1939), प्रेम नगर (1940), मतवाली मीरा (1940) उन्होंने इस तरह की स्टंट फिल्में की ये सारी फिल्में बी या सी ग्रेड की ही थीं.  सारी कोशिशों के बावजूद उन्हें वो मुक़ाम नहीं मिल रहा था जिसकी उन्हें चाहत थी. फिर उनके करियर में वो मौक़ा भी आया जिसकी उन्हें चाहत थीं.  1941 के बाद उन्होंने भारत लक्ष्मी द्वारा बनाई गयी दो सोशल फिल्मों में काम मिला.  इन फिल्मों में उनकी भूमिका छोटी मगर दमदार थीं. उसके बाद उन्होंने भवनानी प्रोडक्शंस और नेशनल स्टूडियो से दो फिल्मों में अभिनय किया. इसके बाद उन्हें केवल छोटे या साइड रोल ही मिले.

1941 में, हुस्न बानो ने नूर मोहम्मद चार्ली के साथ धंडोरा नामक फिल्म में मुख्य भूमिका निभायी, हुस्न बानो ने अपने जीवनकाल में लगभग 53 फिल्मों में अभिनय किया और 16 फिल्मों में 44 गाने गाए.

1941 में ही उन्होंने सज्जन फिल्म में अभिनय किया. 1942 में वो जवानी फिल्म में नज़र आयीं. 1944 की फिल्म दोस्त में वह मोतीलाल और नूर जहाँ के साथ नज़र आयीं. हुस्न बानो उन पहली अभिनेत्रियों में से एक थीं, जिन्हें प्रसिद्ध गायिका नूरजहाँ (जो बाद में आज़ादी के बाद पाकिस्तान चली गईं थीं) ने 1944 में फ़िल्म दोस्त में अपनी आवाज़ दी थी. इसी साल वह फिल्म आईना में याक़ूब, त्रिलोक कपूर और गोप के साथ नज़र आयीं. 1947 में उन्होंने तीन फिल्मों दर्द, सम्राट अशोक और दीवानी में काम किया, 1949 में उन्होंने ‘सिपहिया’ में काम किया.

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1951 में गुमास्ता और बड़े भैय्या में उन्होंने अदाकारी की.  1952 में ज़माने की हवा और 1954 की फिल्म अमर में वो दिलीप कुमार, मधुबाला और निम्मी के साथ नज़र आयीं. 1959 में साज़िश और 1960  बारूद फिल्म में वह नज़र आयीं.

अगर उनकी पर्सनल ज़िन्दगी की बात की जाये तो उन्होंने वाडिया प्रोडक्शंस के डायरेक्टर अस्पी ईरानी से शादी की, जिनके साथ उनका लंबे समय तक अफेयर रहा. उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के आखिरी वक़्त तक फिल्मों में हर तरह की भूमिकाएं की. उनकी आख़िरी फिल्म ‘आख़िरी सजदा’ थी. उन्होंने बॉम्बे के दादर में अपनी मां शरीफा के नाम पर ‘शरीफा मंजिल’ नाम का एक बड़ा सा घर बनाया. 23-11-1986 को सुबह उनके शौहर अस्पी ईरानी किसी काम से घर से निकले और उसके बाद कभी वापस नहीं आये. उन्हें पुलिस ने बहुत ढूंढा लेकिन वो नहीं मिले.

 हुस्न बानो इतनी ख़ूबसूरत और ग्लैमरस थीं कि वह 1940 में ‘लक्स साबुन’ के विज्ञापन में नज़र आयीं थीं.

जवानी नाम की फिल्म (1942) एक अभिनेत्री के रूप में उनके करियर की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. उन्होंने प्रेम नगर (1940) में गाया, जो संगीत निर्देशक के रूप में नौशाद की पहली फिल्म थी. उनके भाई नादिर शाह मशहूर और मारूफ़ अभिनेत्री नाज़िमा के पिता थे.

हुस्न बानो को हिंद केसरी (1935), गंगा जमना (1961) और चांद की दुनिया (1959) के लिए जाना जाता है.

साल 1977 में वो इस दुनिया-ए-फ़ानी से बड़ी ख़ामोशी के साथ रुखसत हो गयीं. हिंदी सिनेमा उन्हें हमेशा याद रखेगी. आपको हुस्न बानो की ये दास्ताँ कैसी लगी हमें ज़रूर बताइयेगा.

  

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