रियासत अली वस्ती, जिन्हे सिनेमा के चाहने वाले ‘वस्ती’ के नाम से ज़्यादा जानते हैं. एक ऐसा नाम जो आज के वक़्त में कम ही याद किया जाता है लेकिन 1930 और 1940 के दशक के दौरान भारतीय फिल्म उद्योग के वह एक मक़बूल अदाकार थे. उन्हें आवाज़ (1942), संजोग (1943), रतन (1944), बलम (1949) गुमाश्ता (1951), जब प्यार किसी से होता है (1961), और पतंगा (1971) जैसी फ़िल्मों में लाजवाब अदाकारी के लिए जाना जाता है.
उनकी पैदाइश 1912 में हुई थी तारीख़ का सही सही पता नहीं चलता है. सिनेमा में उनकी शुरुवात लाहौर में न्यू ओरिएंटल फ़िल्म्स से शुरू हुई, जहां उन्होंने फ़िल्म ‘प्रेमयात्रा’ (1937) से शुरुआत की, जो उनके दो दशकों से अधिक तक चलने वाले करियर की शुरुआत थी.
वस्ती ने अपनी शुरुआती फ़िल्मों में बड़ी सफलता के साथ एक प्रमुख व्यक्ति के रूप में काम किया. वह चरित्र भूमिकाओं में भी समान रूप से माहिर थे, जिसे उन्होंने गहराई और सूक्ष्मता के साथ निभाया. उनकी शुरुवाती भूमिकाओं में शोभना समर्थ और प्रेम अदीब के साथ निराला हिंदुस्तान (1938), बागबान (1938), नर्तकी (1940), कैदी (1940), कुरमई (1941), आवाज (1942) और कई अन्य फ़िल्में शामिल हैं.
नूर मोहम्मद चार्ली और मेहताब के साथ “संजोग (1943)”, शमीम के साथ “पहले आप (1943)”, “देव कन्या (1946)”, “गुमाश्ता”, “रतन (1944)”, “शमा” (1946)” “एक दिन का सुल्तान (1945),” “डाक बंगला (1947),” “मनोरमा के साथ चुनरिया (1948), ” “पुगरी (1948),” और “लच्छी (1949),” जैसी फ़िल्मों में उनकी निभाई भूमिकाओं ने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई. वह हिंदी सिनेमा के स्वर्ण युग के स्तम्भकारों में से एक थे.
उनकी ज़िन्दगी पर बहुत काम लिखा गया बहुत ज़्यादा रिसर्च करने के बावजूद उनकी निजी ज़िन्दगी के बारे बहुत कम ही मिलता है सिवाए उनकी फिल्मोग्राफी के. उनकी बाद की फिल्मों में उनकी भूमिकाओं में परछाईं (1952), लैला मजनू (1953), शबाब (1954), दुनिया झुकती है (1960), गुड्डी (1961), ससुराल (1961), फिर वही दिल लाया हूं (1963), दो बदन शामिल हैं। (1966), नूरजहाँ (1967), श्रीमानजी (1968), प्यार का मौसम (1969), दीदार (1970), पतंगा (1971), और भी बहुत सारी फ़िल्में.
उन्होंने नई दुनिया (1942) से “बूट करू माई पलिश बाबू”, (जिसे अभिनेत्री नूर जहाँ ने गाया था), पुगरी (1948) से “एक तीर चलने वाले ने दिल लुट लिया”, पहले आप (1944) से श्याम कुमार द्वारा गाए “बेख़बर जाग जरा, किसकी औलाद है तू” एक दिन का सुल्तान (1945) से जीएम दुरानी द्वारा गाया गया “फलक के चांद का हमने जवाब देख लिया”, और डोली (1947) से “दिल्ली की गलियों में जिया नहीं लागे” जैसे गानों में भी अभिनय किया.
1930 और 1940 के दशक हिंदी सिनेमा के लिए परिवर्तनकारी वर्ष थे, जब उद्योग ने नई कहानी कहने की तकनीकों का प्रयोग किया और विभिन्न शैलियों की खोज की. वस्ती जैसे अभिनेताओं ने इन कहानियों को जीवंत बनाने, अपने अभिनय से दर्शकों को मंत्रमुग्ध करने और सिनेप्रेमियों के दिलों पर एक अमिट छाप छोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
15 अप्रैल 1996 को वस्ती इस फ़ानी दुनिया से रुख़्सत हो गए. अगर आपके पास उनसे ताल्लुक़ कोई जानकारी हो तो ज़रूर साझा करियेगा.
उनकी फ़िल्मोग्राफ़ी की बात करें तो वह कुछ यूँ है –
निराला हिंदुस्तान (1938), रिक्शावाला (1938), बागबान (1938), ठोकर (1939), नरतकी (1940), आवाज (1942), शारदा (1942), संजोग (1943), रतन (1944), उमर खय्याम (1946) ), देव कन्या (1946), 1857 (1946), मेरे भगवान (1947), खूबसूरत दुनिया (1947), डाक बंगला (1947), चितचोर (1947), नाच (1949), बलम (1949), गौना (1950) , परछाइयां (1952), लैला मजनू (1953), शबाब (1954), दिल देके देखो (1959), दुनिया झुकती है (1960), ससुराल (1961), जब प्यार किसी से होता है (1961), गुड्डी (पंजाबी फिल्म) , 1961), फिर वही दिल लाया हूं (1963), दो बदन (1966), पिंड दे कुरी (1967), श्रीमानजी (1968), प्यार का मौसम (1969), दीदार (1970), वो दिन याद करो (1971) , पतंगा (1971) और मुनीमजी (1972).