जानी बाबू जब जब फिल्मों में क़व्वालियों की बात होगी तो उनका नाम सबसे पहले आएगा – उनका क़व्वाली गाने का तरीक़ा किसी को भी मंत्रमुग्ध कर देगा. जब भी आप उनकी गयी क़व्वाली सुनेंगे तो अपने आपको झूमने से रोक नहीं पाएंगे यक़ीनन अपने वक़्त के वह एक बेहतरीन क़व्वाल थे. खली वली और रात बाक़ी है बात बाकी है, जैसी बेहद मशहूर कव्वालियों के साथ, उन्होंने सालों तक लोगों के दिलों पर क़ब्ज़ा कर लिया. आज हम उनको ख़िराज-ए-अक़ीदत पेश करेंगे.
इनकी पैदाइश हुई 1 जनवरी, सन-1935, हिंगणघाट महाराष्ट्र में, इनका असल नाम जान मोहम्मद जानी बाबू था. बचपन से ही इन्हे गाने का काफ़ी शौक़ था और अक़्सर अपने स्कूल में डेस्क को तबला बना कर बजाते थे और अपने साथियों को गाकर सुनाते थे. जब ये 10 साल के थे तब इनके स्कूल में एक क़व्वाली प्रतियोगिता हुई और उस कार्यक्रम में उस वक़्त के दो प्रसिद्ध गायक आये थे. उस कार्यक्रम में उनके स्कूल के प्रिंसिपल ने उनसे भी क़व्वाली गवाई और उन्होंने इतने क़रीने से क़व्वाली गयी कि सब झूम गए. उस दिन उन्हें एहसास हो गया था कि क़व्वाली में ही उनका करियर है फिर उन्होंने उसी तरफ ध्यान दिया.
वैसे सभी संगीत विधाओं का मूल शास्त्रीय संगीत में है और कव्वाली के मामले में भी ऐसा ही है. ख़ास बात यह है कि हर क़व्वाली का अपना नेचर होता है, अपना नजरिया होता है. एक धार्मिक इंसान के लिए, यह धार्मिक हो सकता है; एक रोमांटिक इंसान के लिए, यह रोमांटिक हो सकता है और शराबी के लिए, यह नशीला हो सकता है यही इस शैली की असली खूबसूरती है, इसलिए यह हर सुनने वाले को अच्छा लगता है.
उन्होंने अपने लम्बे करियर में काफ़ी क़व्वालियाँ गयी हैं. रोटी कपड़ा और मकान- कव्वाली – ‘महंगाई मार गई’ आज भी काफ़ी मक़बूल है.
उन्होंने लता, रफ़ी, आशा और मुकेश जैसे बड़े कलाकारों के साथ भी गीत गए. रफ़ी साहब से उनका ख़ास रिश्ता था वो जब भी मिलते थे रफी साहब उन्हें गले लगा लेते थे. रफ़ी साहब उन्हें प्यार से मुन्ना बुलाते थे !जानी बाबू ने अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि तो उसमें उन्होंने अपना और रफ़ी साहब ज़िक्र किया था वो कहते हैं कि रफ़ी साहब उनके लिए काफ़ी ख़ास थे उनकी मुस्कराहट उनके लिए दवा जैसी थी ख़ुदा ने उनकी शख़्सियत ही ऐसी बनाई थी जब रफ़ी साहब की मौत हुई तो उनको लगा जैसे उनकी दुनिया ही लूट गयी वो आगे कहते हैं कि रफ़ी साहब की जगह काश उन्हें मौत आ जाती.
रफ़ी के साथ जानी बाबू ने कुल चार गीत गए पहला गीत उन्होंने फ़िल्म चार दरवेश में गया – तेरे करम की धून जहाँ में कहाँ नही.
दूसरा गीत 1965 में आयी फ़िल्म सन ऑफ़ हातिम ताई- और गीत के बोल कुछ यूं थे- जो इश्क़ ए हक़ीक़ी रखता हो.
तीसरा गीत 1977 में आयी फ़िल्म- मंदिर मस्जिद में – इस गीत में उनके साथ थे- रफ़ी, दिलराज कौर और अनुराधा पोडवाल – हम तुम पे मर मिटेंगे तुमको ख़बर ना होगी.
चौथा और आख़िरी गीत 1979 में आयी फ़िल्म – शिरडी के साईं बाबा – और इस गीत में रफ़ी ,जानी बाबू , अनूप जलोटा और अनुराधा पोडवाल के साथ – साईं बाबा बोलो बोलो.
अगर इनकी निजी ज़िन्दगी की बात की जाए तो ज़्यादा कुछ ख़ास पता नहीं चलता है, लेकिन कुछ रिसर्च के बाद इनके एक साहबज़ादे के बारे में पता चलता है, इनके सहबज़ादे का नाम तलत जानी है जो 90s के दौर के मशहूर फ़िल्म डायरेक्टर हुए जिन्होंने फ़तेह, हिम्मतवर, रंग और जीना सिर्फ मेरे लिए जैसी फिल्में डायरेक्ट की. उन्होंने क्योंकि सास भी कभी बहु जैसा सीरियल डायरेक्ट किया. 28 फरवरी 2008 को ये बेहतरीन कलाकार इस दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़सत हो गया. क़व्वाली के जहाँ का ये कलाकार हमेशा याद रखा जायेगा.