पेशेंस कूपर: हिंदी सिनेमा की एंग्लो-इंडियन अदाकारा, 16 साल साल की उम्र में बन गयीं थी ‘सुपरस्टार’

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By Mohammad Shameem Khan

पेशेंस कूपर: ये नाम आज शायद ही किसी को याद हो लेकिन यह नाम सिनेमा प्रेमियों के दिलों में अभी भी ज़िंदा है. वह एक एंग्लो-इंडियन अदाकारा थीं जो हिंदी सिनेमा के शुरुआती सुपरस्टारों में से एक थीं. वह जॉन फ्रेडरिक गैंबल और फोएबे स्टेला क्लेमेंट की बेटी थीं. 30 मई 1902 में उनकी पैदाइश हावड़ा, पश्चिम बंगाल में हुई थी. कूपर का मूक और साउंड दोनों तरह की फ़िल्मों में एक सफल करियर था.

उन्हें भारतीय सिनेमा की पहली दोहरी भूमिकाओं का श्रेय दिया जाता है – फ़िल्म पत्नी प्रताप में जुड़वां बहनों के रूप में और कश्मीरी सुंदरी में माँ और बेटी के रूप में, हालाँकि इससे पहले 1917 में, अभिनेता अन्ना सालुंके ने फ़िल्म लंका दहन में मुख्य पुरुष पात्र राम और महिला मुख्य पात्र सीता दोनों की भूमिकाएँ निभाई थीं.

Source: Social Media

पेशेंस कूपर ने अपने करियर की शुरुआत यूरेशियन मंडली बैंडमैन की म्यूज़िकल कॉमेडी में एक डांसर के रूप में की थी. बाद में वह मुख्य अदाकारा के रूप में जमशेदजी फ्रामजी मदान की कोरिनिथियन स्टेज कंपनी में शामिल हो गईं.

कूपर ने सबसे पहले फ़िल्म नल दमयंती (1920) से अपने काम से प्रभाव छोड़ा. इस फ़िल्म में केकी अदजानिया ने नल और कूपर ने दमयंती की भूमिका निभाई थी. यह फिल्म एक बड़े बजट की मदन थिएटर प्रोडक्शन थी और इसका निर्देशन यूजेनियो डी लिगुरो ने किया था, जो इटली में फासिनो डी’ओरो (1919) जैसे ओरिएंटलिस्ट कैमरा वर्क के लिए जाने जाते थे. नल दमयंती उस समय अपने स्पेशल इफेक्ट्स की वजह से काफी मशहूर हुई थी – जैसे नारद मुनि का मेरु पर्वत से होकर स्वर्ग में चढ़ना, चार देवताओं को नल के रूप में बदलना, काली का नाग में बदलना आदि.

उनकी अगली फ़िल्म विष्णु अवतार थी, जो 1921 में रिलीज़ हुई थी. उसके बाद वह फ़िल्म ध्रुव चरित्र (1921) में नज़र आयीं जिसका निर्देशन डी लिगुरो ने किया था, जो ध्रुव की कथा पर आधारित एक पौराणिक कथा थी, जिसकी शाश्वत ज्ञान और मोक्ष की खोज को तब पुरस्कृत किया गया जब वह आकाश में सबसे चमकीला तारा बन गया. तारे को ध्रुवतारा के नाम से भी जाना जाता है.

यह फ़िल्म मदन थियेटर्स के लिए एक अंतरराष्ट्रीय सफलता के प्रयास के रूप में बनाई गई थी और इसमें कूपर के साथ कई यूरोपीय कलाकार शामिल थे, जिन्होंने फेमल लीड सुनीति की भूमिका निभाई थी.

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कूपर की सबसे बड़ी सफलताओं में से एक फ़िल्म पति भक्ति (1922) थी. जे. जे. मदन द्वारा निर्देशित इस फिल्म में कूपर ने लीलावती की भूमिका निभाई, जो इस बात की वकालत करती थी कि महिलाओं को अपने पति के प्रति समर्पित होना चाहिए. यह फ़िल्म उनकी सबसे महान फिल्म मानी जाती है और यह एक छोटे विवाद में भी शामिल थी क्योंकि मद्रास में सेंसर ने अश्लीलता के आधार पर एक डांस नंबर को हटाने की मांग की थी.

पेशेंस कूपर ने शायद हिंदी फ़िल्मों में पहली बार दोहरी भूमिकाएँ निभाईं – पत्नी प्रताप (1923), जहाँ उन्होंने दो बहनों की भूमिका निभाई और कश्मीरी सुंदरी (1924), जहाँ उन्होंने माँ और बेटी की भूमिका निभाई.

पेशेंस कूपर ने 1930 के दशक के मध्य तक फिल्में कीं. उनकी आख़िरी प्रमुख फ़िल्मों में से एक ज़हरी साँप (1933) थी. यह फ़िल्म एक अच्छे नवाब बकर मलिक के खिलाफ एक मध्ययुगीन सरदार के विद्रोह के बारे में थी जिसमे कूपर ने एक अहम भूमिका निभाई थी. नवाब का डाकू बेटा बदला लेने की क़सम खाता है और अंतत: अंत भला तो सब भला होता है. फ़िल्म में नाटकीय संघर्ष में सरदार उस राजकुमारी से शादी करना चाहता है, जिसे उसने अपनी बेटी की तरह पाला था।

अपनी आखिरी फिल्म, इरादा में अभिनय करने के बाद, 1944 में सेवानिवृत्त होने तक कूपर ने 40 से ज़्यादा फ़िल्मों में अभिनय किया. कूपर को अक्सर एक परेशान लेकिन निर्दोष महिला की भूमिका निभाने के लिए लिया जाता था, जो हमेशा नैतिक दुविधाओं के केंद्र में रहती थी, जो अक्सर उसके जीवन में पुरुषों के कारण होती थी.

कूपर की स्टार छवि का एक प्रमुख पहलू विभिन्न प्रकाश और तकनीकी स्थितियों के बावजूद ‘हॉलीवुड लुक’ की सफल उपलब्धि थी. उनकी विशिष्ट एंग्लो-इंडियन विशेषताएं, जैसे गहरी आंखें, तीखे नैन-नक्श, आबनूस बाल और हल्की त्वचा टोन, ने तकनीशियनों को आंखों के स्तर की रोशनी की आयातित तकनीक के साथ प्रयोग करने और मूक युग के हॉलीवुड सितारों के समान उपस्थिति प्राप्त करने की अनुमति दी.

1920 के दशक के दौरान फ़िल्म उद्योग में महिलाओं, विशेषकर हिंदुओं की कम संख्या (रूढ़िवादी दृष्टिकोण के कारण) का मतलब था कि कूपर जैसी एंग्लो-इंडियन अभिनेत्रियों की मांग थी. कई सफल फ़िल्मों में उनकी उपस्थिति ने उन्हें पहली महिला भारतीय फ़िल्म स्टार कहा जाने लगा.

आम तौर पर यह माना जाता है कि पेशेंस कूपर ने एक प्रसिद्ध भारतीय बिज़नेसमैन मिर्जा अहमद इस्पहानी साहब से शादी की थी और 1947 में, वो पाकिस्तान चले गये. दरअसल उनकी शादी 21 साल की उम्र में एमएएच इस्पहानी से हुई थी और कुछ ही समय बाद उनका तलाक़ हो गया. इसके बाद उन्होंने शुरुआती मूक फ़िल्म अभिनेताओं में से एक गुल हामिद ख़ान से शादी की और छह साल बाद हॉजकिन रोग से उनकी मौत हो गई.

पेशेंस कूपर अपने जीवन के अंत तक एमएएच इस्पहानी के साथ दोस्त बनी रहीं. कूपर ने अपना नाम बदलकर सबरा बेगम रख लिया और अपने आख़िरी दिन अपनी दो गोद ली हुई बेटियों जीनत और हलीमा के साथ कराची, पाकिस्तान में बिताई. उनकी बेटी सैयदा नफ़ीस रिज़वी ह्यूस्टन, टेक्सास, संयुक्त राज्य अमेरिका में रहती हैं. उन्होंने अपने जीवनकाल में 17 बच्चों का पालन-पोषण किया और/या उन्हें गोद लिया. 1993 में कूपर इस फ़ानी दुनिया से हमेशा के लिए रुख़सत हो गयीं.

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