
महबूब की मेहँदी: यह फ़िल्म 1971 में बनी थी. इसका निर्माण और निर्देशन एच॰ एस॰ रवैल ने किया था. एच॰ एस॰ रवैल ने अपने करियर की शुरुवात 1940 के दशक की फ़िल्म ‘दोरांगिया डाकू’ से निर्देशक के तौर पर की थी. उनकी लगातार तीन फ़िल्में; शुक्रिया (1944), ज़िद (1945) और झूठी कसमें (1948); व्यावसायिक विफलताएँ थीं. उन्होंने सफलता सा स्वाद फ़िल्म पतंगा (1949) से चखा और उस साल की सातवीं सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म थी. इस फ़िल्म में शमशाद बेगम द्वारा गया हुआ गीत “मेरे पिया गये रंगून” ख़ासा मक़बूल हुआ था.
बाद में उन्होंने मेरे महबूब (1963), संघर्ष (1968), महबूब की मेहँदी (1971) और लैला मजनू (1976) जैसी रोमंटिक फ़िल्मों का निर्देशन किया. उनके बेटे राहुल रवैल भी एक फ़िल्म निर्देशक हैं जिन्होंने जीवन एक संघर्ष (1990) नाम की फ़िल्म बनाकर उन्हें श्रद्धांजलि दी थी.
ख़ैर चलिए फोकस करते हैं, फ़िल्म ‘महबूब की मेहँदी’ की. इस फ़िल्म में राजेश खन्ना और लीना चन्दावरकर मुख्य भूमिकाओं में हैं और सहायक कलाकारों में प्रदीप कुमार, इफ़्तेख़ार, जगदीश राज, गुरनाम सिंह और मुमताज़ बेगम शामिल हैं. संगीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने तैयार किया है और गीत के बोल आनंद बख्शी के हैं. यह फ़िल्म मुस्लिम तहज़ीब (संस्कृति) पर आधारित थी.
बात है 70 के दशक की जब राजेश खन्ना ने ढेर सारी फ़िल्में हिट हो रही थीं. परदे पर रोमांस करने के उनके अंदाज़ पर दर्शक मर मिटते थे, उनका जादू दर्शकों के सिर चढ़कर बोलता था. राजेश खन्ना का फ़िल्म में होना एक तरह से फ़िल्म की क़ामयाबी की गारंटी थी. 1971 में ही राजेश खन्ना की ऑल टाइम ब्लॉकबस्टर फ़िल्म- ‘आनंद’ रिलीज हुई थीं. जिसके लिए उन्हें बेस्ट एक्टर के फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड से भी नवाज़ा गया था.
यही वो वक्त था जब राजेश खन्ना ने एक के बाद एक कई सुपर हिट फ़िल्मों में काम किया, जिसमें ‘हाथी मेरे साथी’, ‘मर्यादा’, ‘दुश्मन’, ‘अंदाज़’, ‘छोटी बहू’ और ‘महबूब की मेहँदी’ जैसी फ़िल्में शामिल हैं. इनमें से फ़िल्म ‘हाथी मेरे साथी’ और ‘महबूब की मेहँदी’ ने काफ़ी शोहरत बटोरी थीं और बॉक्स-ऑफिस पर पैसों की बारिश कर दी थीं. दर्शक राजेश खन्ना की हर एक अदा पर निसार थे और दर्शकों के साथ फ़िल्म के निर्देशक राजेश खन्ना से फरमाइश करने लगे थे कि वो फ़िल्म ‘अमर प्रेम’ की तरह गर्दन को हिलाएं और पलकों को झुका कर अपने अंदाज़ में डायलॉग्स बोलें. राजेश खन्ना साहब का ये अंदाज़ उस वक़्त तक उनका ‘ट्रेडमार्क’ बन चुका था.

फ़िल्म महबूब की मेहँदी की क़ामयाबी में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत का बहुत बड़ा योगदान था. इस फ़िल्म में एक से बढ़कर एक ज़बरदस्त गाने थे – ‘जाने क्यों लोग मोहब्बत किया करते हैं,’ ‘ये जो चिलमन हैं,’ ‘पसंद आ गयी है एक,’ इतना तो याद है मुझे कि उनसे मुलाक़ात हुई,’ ‘अपना है तू बेगाना नहीं,’ ‘मेरे दीवानेपन की भी,’ और ‘महबूब की मेहँदी हाथों में’ जैसे गाने ख़ूब हिट हुए थे और आज भी पसंद किये जाते हैं.
फ़िल्म के हिट होने में उसके मज़बूत संगीत पक्ष का फार्मूला कोई नया नहीं है लेकिन इस फ़िल्म की कहानी भी बहुत अच्छी थी और कलाकारों का चयन भी शानदार था. इस फ़िल्म की क़ामयाबी का एक दिलचस्प पहलू यह था कि राजेश खन्ना ने एक अमीर मुस्लिम युवक का क़िरदार अदा किया था जो एक तवायफ की बेटी से शादी करने को तैयार हो जाता है. फ़िल्म की कहानी कुछ यूं है –
यूसुफ़ (राजेश खन्ना) अपने कारोबारी वालिद (पिता), सफदरजंग (इफ़्तेख़ार) के साथ एक आलिशान सी कोठी में पूरी शान-ओ-हसवकत के साथ रहते हैं. सफदरजंग साहब बीमार रहते हैं और व्हील चेयर तक ही महदूद रहते हैं. यूसुफ़ के भतीजे, ख़ालिद उर्फ फिरंगी की शिक्षिका, मिस अल्बर्ट (मनोरमा) उसकी शरारत से परेशान होकर उसकी शिकायत यूसुफ़ से करती हैं और काम छोड़ चली जाती हैं. अब यूसुफ शबाना (लीना चन्दावरकर) को ख़ालिद को पढ़ाने के लिए रखता है, जो अपनी नानी के पास कुछ वक़्फ़े के लिए उनके साथ रहने के लिए आई थी.
वह अपने पिता की देखभाल के लिए में खैरुद्दीन (प्रदीप कुमार) नाम के एक व्यक्ति को काम पर रखता है. यूसुफ और शबाना एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं और सफदरजंग और नानी की खुशी के लिए शादी करने का इरादा रखते हैं. शादी की तैयारी चल रही होती है, लेकिन यूसुफ और उसके परिवार को कुछ बातें पता नहीं हैं, एक यह है कि शबाना, नज़्मा नामक एक तवायफ़ की बेटी है; बस कहानी यहीं से एक दिलचस्प मोड़ लेती है और थोड़ी जद्दोजहद के बाद यूसुफ़ और शबाना एक दूसरे के हो जाते हैं.
एंटरटेनमेंट के साथ इस फ़िल्म का संदेश महात्मा गांधी की मुस्लिमों में शिक्षा की वकालत को लेकर था. शायद यही वजह थी कि इस फ़िल्म को महात्मा गांधी की पुण्यतिथि 30 जनवरी को रिलीज किया गया था.
जब एचएस रवैल ने राजेश खन्ना के आनंद बक्शी के द्वारा उस ख़ास अंदाज पर लिखे गाने को कंपोज करने के लिए लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को संपर्क किया तो उन्होंने उस गाने को शास्त्रीय राग तिलंग का आधार बनाकर कंपोज किया, जिस पर उन्हें साथ मिला मो. रफ़ी, किशोर कुमार, लता मंगेशकर और हेमलता का. जिसे लोगों ने बहुत सराहा.
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