अशोक कुमार : हिंदी सिनेमा दादा मुनि, 1936 में शुरू किया था करियर.

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By Mohammad Shameem Khan

हिंदी सिनेमा के शुरुवाती दौर के अभिनेताओं में अशोक कुमार एक ऐसे वाहिद अदाकार थे, जिन्होंने अपनी अदाकारी का जौहर पारसी थिएटर की स्टाइल में ना करते हुए अपने सादगी भरे अभिनय से सभी का दिल जीत लिया था. अपने वक़्त में उन्होंने स्टारडम की पराकाष्ठा को छुआ लेकिन कभी भी ख़ुद को किसी छवि में बँधने नहीं दिया. उन्होंने अपने पूरे करियर में तरह तरह के क़िरदार निभा कर हम सभी का मनोरंजन किया.

अशोक कुमार के बारे में सबसे दिलचस्प बात यह है कि शुरुवाती दौर में फ़िल्म इंडस्ट्री का हिस्सा होने के बावजूद भी इनकी कभी भी अदाकारी में कोई रूचि नहीं थी. लेकिन जब इन्हे फ़िल्म जीवन नैय्या (1936) में अदाकारी करने का मौक़ा मिला तो इस फ़िल्म में इन्होने बहुत ही बेमन से काम किया लेकिन फ़िल्म के हिट होने के बाद तो जैसे इनकी गाडी चल निकली. दरअसल अशोक कुमार अपना करियर फ़िल्म के तकनीकी पक्ष में बनाना चाहते थे और चाहते थे कि वह इसी क्षेत्र में सफलता हासिल करें.

अशोक कुमार बॉम्बे टॉकीज़ में लैब असिस्टेंट का काम करते थे. उनके फ़िल्मों में आने का क़िस्सा दरअसल बड़ा ही दिलचस्प है, बात है 1935 की जब बॉम्बे टॉकीज़ में एक फ़िल्म बन रही थी फ़िल्म का नाम था जीवन नैय्या. इस फ़िल्म के हीरो थे नज़्मुल हुसैन और हेरोइन थीं देविका रानी. इस फ़िल्म की शूटिंग के दौरान ये दोनों बहुत नज़दीक आ गए थे और नज़्मुल देविका रानी को लेकर भाग गए. देविका रानी बॉम्बे टॉकीज़ के मालिक हिमांशु राय की बीवी थीं. दोनों के पकडे जाने के बाद हिमांशु राय के देविका रानी को तो माफ़ कर दिया लेकिन नज़्मुल को नौकरी और फ़िल्म दोनों से निकाल दिया.

अब शुरू हुई फ़िल्म के हीरो की तलाश क्योंकि हिमांशु यह फ़िल्म जल्द से जल्द पूरी करना चाहते थे. तभी बॉम्बे टॉकीज़ में काम करने वाले शशाधर मुख़र्जी ने अपने साले कुमुदलाल गांगुली का नाम सुझाया और बात बन गयी. हिमांशु राय को कुमुदलाल गांगुली नाम कुछ ख़ास जमा नहीं तो उन्होंने फ़िल्मी परदे पर कुमुद को अशोक कुमार बना के पेश किया. इस तरह से हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में एक सितारे का उदय हुआ.

शशाधर मुख़र्जी की शादी अशोक कुमार एकलौती बहन सती देवी से हुई थी जो उनसे कुछ साल छोटी थीं. इस तरह से शशाधर मुख़र्जी अशोक कुमार के बहनोई हुए. आजके दौर की अभिनेत्रियाँ काजोल और रानी मुख़र्जी शशाधर मुख़र्जी की पोतियां हैं.

अशोक कुमार की एक ख़ास बात थी कि वह किसी भी काम को अगर हाथ में लेते थे तो उसे पूरी ज़िम्मेदारी के साथ निभाते भी थे इसलिए जब उन पर फ़िल्म में अदाकारी की ज़िम्मेदारी आयी तो उन्होंने इसे बहुत ही गंभीरता से लिया और जल्द ही वह अभिनय में ऐसे रच बस गए जैसे अदाकारी जैसे सिर्फ़ उन्ही के लिए बनी हो. उनकी नेचुरल अदाकारी उनके करियर की शुरुवाती फ़िल्म अछूत कन्या में देखी जा सकती है. अछूत कन्या की सफलता के बाद, उन्होंने कंगन (1939), बंधन (1940) और झूला (1941) के साथ सिल्वर जुबली हिट की हैट्रिक दी. इसके बाद अशोक कुमार की देविका रानी के साथ इज़्ज़त, सावित्री और निर्मला जैसी फिल्में आयीं.

फ़िल्म अछूत कन्या में उनका और देविका रानी का गाया हुआ गीत ‘मैं बन का पंछी बन के संग संग डोलू’ ख़ूब मक़बूल हुआ था. अशोक कुमार एक अदाकार के तौर पर मशहूर हो गए थे लेकिन अभी उन्हें एक स्टार बनना बाक़ी था तो वो फ़िल्म आयी जिसने उन्हें एक स्टार का दर्जा दिला दिया वह थी 1943 की फ़िल्म क़िस्मत. फ़िल्मी परदे पर सिगरेट का छल्ला बना कर उड़ाते हुए अशोक कुमार ने सीधे सादे छवि वाले नायकों के उस दौर में इस फ़िल्म के ज़रिये खलनायक का क़िरदार निभाने का ज़ोख़िम उठाया. यह ज़ोख़िम उनके लिए फायदेमंद साबित हुआ और इस फ़िल्म की सफलता के उनके करियर में चार चाँद लगा दिए.

उसके बाद वो अंगूठी, हुमांयू, शिकारी, साजन में नज़र आये. 1949 में मधुबाला के साथ आयी उनकी फ़िल्म महल काफ़ी सफल हुई, जिसे हिंदी सिनेमा की पहली हॉरर फ़िल्म का दर्जा प्राप्त है. उसी दौर की अभिनेत्री मीना कुमारी के साथ तमाशा (1952), परिणीता (1953), बंदिश (1955), एक ही रास्ता (1956), शतरंज (1956), फरिश्ता (1958), आरती (1962), चित्रलेखा (1964), बेनज़ीर (1964), भीगी रात (1965), बहु बेगम (1967), पाकीज़ा (1972) जैसी फ़िल्मों में काम किया.

अशोक कुमार या दादा मुनि की पैदाइश 13 अक्टूबर 1911 में बिहार के भागलपुर में हुई थी. इनके पिता कुंजलाल गांगुली एक वकील थे और माँ का नाम गौरी देवी था. इन्होने अपनी पढाई कोलकाता के प्रेजिडेंट कॉलेज से की. अशोक कुमार के दो छोटे भाई अनूप कुमार और किशोर कुमार को भी फ़िल्मों में आने की प्रेरणा अशोक कुमार से ही मिली.

अशोक कुमार, अनूप कुमार और किशोर कुमार की सबसे यादगार फ़िल्म ‘चलती का नाम गाडी’ रही इस फ़िल्म में अशोक कुमार ने अपने भाइयों के बड़े भाई की भूमिका अदा की थी. इस फ़िल्म मधुबाला भी थीं. किशोर कुमार अपने भाई अशोक कुमार को अपना आदर्श मानते थे और उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में यह बात स्वीकार भी की थी कि उनके भीतर बाल गीतों के ज़रिये गायन के संस्कार अशोक कुमार ने ही डाले थे.

अशोक कुमार ने बाद की फ़िल्मों में चरित्र भूमिकाएं भी ख़ूब निभाईं चाहे वो विक्टोरिया नंबर 203 हो या फिर शौक़ीन, अपनी हर फ़िल्म में अशोक कुमार अपने हर क़िरदार को जिया. अशोक कुमार ने अपने चरित्रों के साथ ख़ूब एक्सपेरिमेंट भी किया. कुछ फ़िल्मों में वो विलेन के तौर पर भी नज़र आये, इसमें देव आनंद और वैजन्तीमाला की फ़िल्म ज्वैल थीफ़ का नाम सबसे पहले आता है.

इन्होने टी. वी. में भी काम किया. भारत का पहला टीवी सीरियल ‘हम लोग’ में ये सूत्रधार की भूमिका में नज़र आये उसके अलावा बहादुर शाह सीरियल में भी ये अविस्मरणीय भूमिका निभाते नज़र आये.

अशोक कुमार की बात हो और उनकी फ़िल्म आशीर्वाद की बात ना हो ऐसा कैसे हो सकता है इस फ़िल्म में उनका क़िरदार बहुत अलग सा था और उनका गाया हुआ गीत ‘रेलगाड़ी -रेलगाड़ी’ काफ़ी मक़बूल हुआ था. इस फ़िल्म में उनके ज़बरदस्त अभिनय के लिए उन्हें 1970 में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरुस्कार मिला था. इसके अलावा 1967 में फ़िल्म अफसाना और 1963 में फ़िल्म राखी के लिए भी इन्हे फ़िल्म फ़ेयर पुरुस्कार दिया गया था. इन्हे फ़िल्म इंडस्ट्री का सबसे सम्मानित पुरुस्कार ‘दादा साहब फाल्के’ से भी सम्मानित किया गया है.

10 दिसंबर 2001 को ये इस फ़ानी दुनिया से हमेशा के लिए रुख़सत हो गए.

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