हंसराज बहल: जिसके संगीत ने रच दिया था इतिहास, फ़िल्म सिकंदर-ए-आज़म (1965) का संगीत सबसे यादगार रहा

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By Mohammad Shameem Khan

हंसराज बहल संगीत निर्देशकों में से एक हैं जो देश की आज़ादी के बाद सफल हुए. उन्होंने न केवल हिंदी फिल्मों बल्कि पंजाबी फिल्मों के लिए भी संगीत दिया. हंसराज बहल की पैदाइश 19 नवंबर 1916 को, अम्बाला, पंजाब में हुई थी. उन्होंने संगीत की बुनियादी शिक्षा पं. चुन्नीलाल से हासिल की. उनके वालिद साहब अपने इलाक़े के ज़मींदार थे. उन्होंने अपने बेटे को संगीत के क्षेत्र में नाम कमाने के लिए हर संभव मदद की. फिर उन्होंने अनारकली बाज़ार लाहौर में अपना संगीत विद्यालय खोला और एचएमवी के लिए कुछ ग़ैर फ़िल्मी रिकॉर्ड जारी किये. 1944 में हंसराज हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में संगीत निर्देशक के रूप में अपनी क़िस्मत आज़माने के लिए बॉम्बे आ गए. वह बॉम्बे अपने छोटे भाई गुलशन बहल और प्रसिद्द गीतकार वर्मा मालिक के साथ आये थे.

हंसराज बहल मो. रफ़ी के साथ
तस्वीर: सोशल मीडिया

एक साल के संघर्ष के बाद, उन्हें 1946 में अर्देशिर ईरानी द्वारा बनाई गई पहली फ़िल्म पुजारी मिली. इस फ़िल्म का निर्देशन एसपी ईरानी ने किया था. कहते हैं बॉम्बे में उन्हें चुन्नीलाल बहल ने पृथ्वीराज कपूर से मिलवाया था. इस बात में कितनी सच्चाई है इसका पता लगाना बेहद मुश्किल है.

उसी वर्ष उन्हें ग्वालन और फुलवारी जैसी फ़िल्में मिलीं, लेकिन ये सभी फ़िल्में बॉक्स ऑफिस पर अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकीं. हंसराज बहल ने 1947 में लाखों में एक और छीन ले आज़ादी की रिलीज़ के साथ सफलता का स्वाद चखा. फ़िल्म छीन ले आजादी में शमशाद बेगम और मुकेश का गाया ‘मोती चुगने गई रे हंसी..’ काफ़ी लोकप्रिय हुआ.

हंसराज बहल
तस्वीर: सोशल मीडिया

1948 में उनकी चार फ़िल्में आईं – चुनरिया, मिट्टी के खिलोने, परदेसी मेहमान और सत्य नारायण, जिनमें चुनरिया का संगीत ख़ासकर लता मंगेशकर द्वारा गाया गाना ‘दिल-ए-नाशाद को जीने की हसरत हो गई..’ हिट रहा. इसी फ़िल्म में उन्होंने प्रसिद्ध पार्श्व गायिका आशा भोसले को पहली बार गाने का मौक़ा दिया, जिन्होंने जोहराबाई अंबालेवाली के साथ ‘सावन आया’ गाना गाकर हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में पार्श्वगायिका के तौर पर अपनी शुरुआत की. जिस गीत ने हंसराज बहल को उच्च श्रेणी के संगीत निर्देशकों में स्थापित किया वह था ‘सब कुछ लुटाया हमने आकार तेरी गली में..’ जिसे मोहम्मद रफ़ी ने गाया था और मुल्क राज भाकरी ने लिखा था.

वर्ष 1949 में उनकी चकोरी, रात की रानी, ज़ेवरात और कुछ और फ़िल्में आईं. चकोरी में लता ने अपना पसंदीदा गाना ‘हाय चंदा गए परदेस चकोरी यहां रो रो मारे..’ गाया, जो बहुत लोकप्रिय हुआ और इससे हंसराज को संगीत प्रेमियों के बीच लोकप्रियता हासिल करने में मदद मिली। रात की रानी में मोहम्मद रफी द्वारा गाया गया ‘जिन रातों में नींद उड़ जाती है..’ देशभर में हिट हुआ था.

हंसराज बहल
तस्वीर: सोशल मीडिया

1950-51 में उन्होंने लता मंगेशकर, गीता दत्त और सुरैया के साथ कई हिट गीत दिये. फ़िल्म ‘किसी की याद’ के गाने फ़िल्म के रिलीज होते ही काफ़ी लोकप्रिय हो गये. गीता दत्त द्वारा गाए गए ‘कोई मुझको ना बुलाए..’ और ‘तड़पता छोड़ कर मुझको कहां तुम रह गए..’ और मोहम्मद रफी द्वारा गाए गए ‘ओ जाने वाले ये क्या किया..’ दोनों को काफ़ी लोकप्रियता मिली थी. 1952 में उन्होंने मधुबाला झावेरी को अपनी इज्जत और जग्गू में पार्श्व गायिका के रूप में पेश किया. मधुबाला ने तलत महमूद के साथ ‘दिल मेरे तेरा दीवाना..’ गाया और ‘मीठी मीठी लोरियां मैं धीरे-धीरे गाऊं..’ (दोनों अपनी इज्जत) में उनकी एकल आवाज थी. 1954 में वह फिर दोस्त और खैबर जैसी संगीतमय फिल्में लेकर आये. तलत महमूद द्वारा गाया गया दोस्त (1954) का ‘आए भी अकेला जाए भी अकेला..’ उनकी बेहतरीन रचनाओं में से एक थी.

हंसराज बहल संगीतकारों के साथ
तस्वीर: सोशल मीडिया

उन्होंने राजधानी, मिलन, मिस बॉम्बे, चंगेज़ खान और सावन जैसी फ़िल्मों में अपना बेहतरीन संगीत देना जारी रखा. राजधानी (1956) से ‘भूल जा सपने सुहाने..’, चंगेज खान (1957) से ‘मोहब्बत जिंदा रहती है..’, चंगेज खान (1957) से ‘जब रात नहीं कटती..’, ‘जिंदगी भर गम’ जैसे गाने मिस बॉम्बे (1957) से ‘जुदाई का..’, मुड़-मुड़ के ना देख (1960) से ‘हसीन हो खुदा तो नहीं..’, सावन (1959) से ‘भीगा भीगा प्यार का समा..’ और ‘तुझको ढूंढू तो’ ‘मिलन’ (1959) का ‘ढूंढू कहां..’ सफलता की सारी सीमाएं पार कर गया और हंसराज बहल का नाम हर संगीत प्रेमी की जुबान पर था.

इन सभी सफल फ़िल्मों के बाद उन्होंने 1969 तक संगीत देना जारी रखा, लेकिन कोई हिट देने में असफल रहे क्योंकि उनकी बाद की फिल्में या तो स्टंट या फैंटसी फ़िल्में थीं जिनमें अच्छे संगीत की बहुत कम गुंजाइश थी. उनका आख़िरी हिट गाना सर्वकालिक महान रचना ‘जहां डाल-डाल पे सोने की चिड़िया करती है बसेरा..’ था, जिसे 1965 में फ़िल्म सिकंदर-ए-आजम के लिए मोहम्मद रफी ने गाया था.

1964 में उन्होंने पंजाबी फ़िल्म ‘सतलुज दे कंधे’ का संगीत रचा, इस फ़िल्म का निर्देशन पदम प्रकाश माहेश्वरी ने किया था. फ़िल्म रिलीज़ होते ही सुपर हिट हो गयी और इसका संगीत भी काफ़ी पसंद किया गया था. इस फ़िल्म में बलराज साहनी , निशि , वस्ती और मिर्ज़ा मुशर्रफ ने अपनी अदाकारी के जौहर दिखाए थे. संगीतकारों में भी हंसराज बहल और मास्टर गुलाम हैदर भारतीय फ़िल्म उद्योग के दो सम्मानित संगीत निर्देशक माने जाते हैं.

उन्होंने अपने चार दशक लंबे करियर के दौरान पंडित इंद्र चंद्र, डीएन मधोक, प्रेम धवन, वर्मा मलिक, असद भोपाली, कमर जलालाबादी और नक्श लायलपुरी जैसे गीतकारों के साथ काम किया और लगभग 67 फ़िल्मों के लिए संगीत रचा. 20 मई 1984 को सिनेमा का यह शाहकार इस फ़ानी दुनिया को हमेशा छोड़ कर चला गया. सिनेमा में उनका यह योगदान हमेशा याद रखा जायेगा.

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