कुलदीप कौर, यह कहानी है एक ऐसी जांबाज़ और निडर अदाकरा की जिसे हिंदी सिनेमा की पहली बैड गर्ल कहा जाता है.
कुलदीप कौर के जांबाज़ी की दास्तान की कहानी बस इतनी है कि जब भारत पाकिस्तान बंटवारे के वक़्त जब लोग क़ौमी दंगों के बीच अपनी जान बचा कर भाग रहे थे, तब ये बॉम्बे से पहले लाहौर गयीं अपना क़ीमती सामान लिया और फिर ख़ुद कार चला कर लाहौर से बॉम्बे आ गयी तो ऐसी थीं हिंदी सिनेमा की पहली विलेन कुलदीप कौर.
उनकी ज़िन्दगी में एक नाटकीय मोड़ तब आया जब उन पर पाकिस्तानी एजेंट होने का आरोप लगा इन सब आरोपों से वह उभर ही रहीं थीं कि 1960 में अचानक 33 साल की छोटी सी उम्र में वह इस फ़ानी दुनिया से चली गयीं और वो भी एक कांटा चुभने और लापरवाही में फैले ज़हर से.
रॉयल परिवार से रखती थीं ताल्लुक़
वह पंजाब के एक अमीर ज़मींदार परिवार की बेटी और सिख साम्राज्य के सम्राट महाराजा रणजीत सिंह के साहसी सैन्य कमांडर जनरल शाम सिंह अटारीवाला के पोते मोहिंदर सिंह संधू से हुई थी. जब उनकी शादी हुई तो उस वक़्त उनकी उम्र सिर्फ 16 साल की थी. मोहिंदर सिंह संधू अपनी पत्नी की ख़ूबसूरती पर फ़िदा थे और चाहते थे कि उनकी बीवी पढ़े और अंग्रेजी तौर तरीक़े सीखे, क्लब में जाये और थिएटर और फ़िल्में देखे स्कूल के वक़्त से कुलदीप कौर ड्रामा में हिस्सा लिया करती थीं और वक़्त के साथ उनके दिल में ख़्याल आया कि वह फ़िल्मों में काम करें.
पहली फ़िल्म और फ़िल्मी सफ़र
कुलदीप कौर की पहली फिल्मों में से एक 1948 में पंजाबी भाषा की फ़िल्म चमन थी, जिसने बॉक्स ऑफिस पर सफलता के कई रिकार्ड्स बनाएं. इस फ़िल्म में उनके साथ करण दीवान और मीना शौरी मुख्य भूमिका में थे कुलदीप कौर ने उस साल दो हिंदी फिल्मों में भी काम किया; शाहिद लतीफ़ द्वारा निर्देशित ‘ज़िद्दी’ जिसमें उनके साथ देव आनंद, कामिनी कौशल और प्राण थे,
दूसरी फ़िल्म थी- ‘गृहस्थी’ यह दोनों फिल्में “बॉक्स ऑफिस हिट” रहीं. गृहस्थी में उन्होंने एक “अपने पति के प्रति असहिष्णु आधुनिक, परिष्कृत महिला” की भूमिका निभाई और अपने पति से बग़ावत कर देती है. इस फ़िल्म के हिट होने के साथ ही उन्हें इस तरह की फ़िल्म के ऑफर आने लगे.
लाहौर से बॉम्बे तक कार से आने का क़िस्सा
लाहौर में फ़िल्मों में काम करते वक़्त कुदीप कौर की दोस्त अभिनेता प्राण से हो चुकी थी. देश विभाजन के दौरान कुलदीप कौर अपने परिवार के विरोध के बावजूद, अपना सब कुछ दांव पर लगा कर बॉम्बे आ गयीं, रोचक बात यह है कि उस वक़्त अभिनेता प्राण भी उनके साथ ही बॉम्बे के लिए निकले थे लेकिन दंगों के बीच प्राण की कार बॉम्बे में ही छूट गयी प्राण की कार छूट जाने की वजह से वह थोड़े निराश हो गए.
तब कुलदीप कौर ने उनसे कहा कि वह बॉम्बे पहुचें और वह उनकी कार लेकर आ जाएँगी प्राण साहब उन्हें रोकते ही रह गए और वह उनको अनसुना कर भीषण दंगों के बीच लाहौर से कार लेकर बॉम्बे आ गयीं और जब उन्होंने कार की छभी प्राण को दी तो वह बहुत हैरान हो गए कुलदीप फ़िल्मों में काम करना चाहती थीं और प्राण के नज़दीक रहना चाहती थीं.
वह हिंदी फ़िल्मों के साथ साथ पंजाबी फ़िल्मों में काम करती रहीं धीरे धीरे सफलता की तरफ बढ़ती रहीं और कनीज (1949), समाधि (1950) और अफसाना (1951) जैसी फ़िल्मों ने उन्हें वैंप की भूमिका में हिंदी फ़िल्मों में जमा दिया. फ़िल्म अफ़साना में वह अशोक कुमार की बेवफ़ा बीवी बनीं दिखाई दीं, जो प्राण से मोहब्बत करती हैं. जबकि फ़िल्म समाधि में नलिनी जयवंत के साथ उन्हें ऑल-टाइम-हिट गीत गोरे गोरे ओ बांके छोरे में देखा जा सकता है. 1952 की सुपर हिट फ़िल्म बैजू बावरा में वह डाकू बनी थीं, जो फ़िल्म के हीरो बैजू का अपहरण करती है.
फ़िल्म अनारकली (1953) में वह गुलज़ार नाम की सुंदरी के क़िरदार में थी, जो सलीम को अनारकली से दूर करना चाहती है. यही क़िरदार फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म में निग़ार सुल्ताना ने निभाया था 1954 में उनकी फ़िल्म गुल बहार और डाक बाबू रिलीज़ हुई थी. साल 1955 उनके लिए सबसे व्यस्त रहा जब उन्होंने तीरंदाज़ और मिस कोका कोला जैसी फ़िल्मों में अभिनय किया.
1956 में कुछ फ़िल्मों की रिलीज़ के साथ, उन्होंने मधुबाला और अशोक कुमार के साथ अभिनय करते हुए फ़िल्म एक साल (1957) में काम किया. 1958 में, कुलदीप कौर की दो फ़िल्मों में काम किया- सहारा और पंचायत. 1959 में उन्होंने तीन फ़िल्मों प्यार का रिश्ता, मोहर और जागीर में काम किया. फ़िल्म मोहर का संगीत मदन मोहन ने तैयार किया था और यह उनके लिए एक और संगीतमय सफलता बन गई.
मां बाप, बड़े घर की बहू, सुनहरी रातें और 1960 में रिलीज़ हुई पंजाबी फ़िल्म यमला जट्ट उनकी आख़िरी फ़िल्म साबित हुई जिनमें उन्होंने अभिनय किया था. उनकी आख़िरी फ़िल्म हनीमून (1960) थी, जिसमें उन्होंने वैंप की भूमिका निभाई थी.
जब उन पर पाकिस्तानी जासूस होने का इलज़ाम लगा
कुलदीप कौर आज़ाद भारत की शायद पहली अदाकारा थीं. जिन्हे दर्शकों के बीच वैम्प के रूप में ज़बरदस्त पहचान मिली, फ़िल्मी परदे पर निभायी गयी उनकी भूमिकाओं की वजह से लोग उन्हें अच्छी महिला नहीं मानते थे और अभिनेता प्राण के साथ भी उनकी नज़दीकियों के ख़ूब चर्चे उस वक़्त की फ़िल्मीं मैगज़ीन में किये जाते थे, जबकि वह और प्राण दोनों शादीशुदा थे.
बाद में प्राण ने भी नेगेटिव क़िरदारों में ख़ूब सफलता हासिल की. यह कुलदीप की नेगेटिव इमेज का ही असर था कि उन पर पाकिस्तान के लिए जासूसी करने के आरोप लगाए गए जबकि यह सिर्फ़ एक अफ़वाह ही साबित हुई.
उन्हें लम्बी उम्र नसीब नहीं हुई उनकी मौत की दो वजहें बताई जातीं हैं. एक में कहा जाता है कि वह शिरडी से दर्शन करके लौट रहीं थीं तो रास्ते में कार से बेर तोड़ने के लिए उतरीं और उनके पैर में कांटा चुभ गया दूसरी में यह बताया जाता है कि एक दरगाह से लौटते वक़्त उनके पैर में कील चुभ गयी थी, दोनों ही परिस्थितियों में यह हुआ कि वह डॉक्टर के पास नहीं गयीं और काम करती रहीं, कील चुभने से उनके पैरों में हुए ज़ख्म से उनके पूरे बदन में ज़हर फैल गया और 1960 में टिटनस की वजह से वह इस दुनिया- ए- फ़ानी से महज़ 33 साल की उम्र में रुखसत हो गयीं.