हिंदी सिनेमा में हमेशा हर तरह के कलाकारों का बोलबाला रहा, उनमें से भी कुछ कलाकार ऐसे रहे जिनके गुज़र जाने के सालों बाद भी लोग उन्हें आज भी याद करते हैं. ऐसे ही एक कलाकार रहे – बदरुद्दीन क़ाज़ी.. नहीं पहचाने अरे साहब हम बात कर रहें हैं जॉनी वॉकर की. अपनी दमदार कॉमिक टाइमिंग से ज़िन्दगी भर सभी को गुदगुदाने वाले जॉनी वॉकर की पुण्यतिथि 29 जुलाई को आती है.
बदरुद्दीन क़ाज़ी जिन्होंने कॉमेडी की दुनिया में एक नयी इबारत लिखी जिनको ध्यान में रखकर फिल्मों की स्क्रिप्ट लिखी जाती थी, उन फिल्मों में उन पर उस वक़्त के दिग्गज सिंगर्स की आवाज़ में गाना फिल्माया जाना लाज़मी माना जाता था. वैसे तो उनके लिए कई बेहतरीन सिंगर्स ने अपनी आवाज़ दी लेकिन उन पर मो. रफ़ी की आवाज़ खूब फबी. तभी तो वह ‘जाने कहाँ मेरा जिगर गया जी’ गाते हुए ‘सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाये’ की बात करते हैं और जब उनका दोस्त दूल्हा बनता है तो उससे कोफ़्त करते हुए ख़ुद के दूल्हा बनने की बात करते हुए गाते हैं, ‘मेरा यार बना है दूल्हा और फूल खिले हैं दिल के, अरे मेरी भी शादी हो जाये सब दुआ करो मिलके’ मो. रफ़ी की आवाज़ में यह सभी गीत अपने वक़्त में ख़ासे मशहूर हुए थे.
11 नवंबर को हिंदी सिनेमा के महान हास्य कलाकर जॉनी वॉकर का जन्मदिन होता है. इनका जन्म स्थान रहा इंदौर एम. पी. इनका असली नाम बदरूदीन क़ाज़ी था. लेकिन फ़िल्मी परदे पर यह जाने गए जॉनी वॉकर के नाम से.
इनकी ज़िन्दगी की कहानी किसी फिल्म की स्टोरी से कम नहीं है. दरअसल उनके वालिद साहब, जमालुद्दीन क़ाज़ी श्रीनगर के एक कपडा मिल में मजदूर हुआ करते थे. किसी वजह से कपडा मिल बंद हुई तो पूरा परिवार मुंबई आ गया रोज़ी रोटी की तलाश में. लेकिन अकेले पिता के लिए 12 लोगों के परिवार का भरण- पोषण करना काफ़ी मुश्किल हो रहा था. पिता के कन्धों का यह भार बदरुद्दीन क़ाज़ी से देखा नहीं गया और बंबई इलेक्ट्रिक सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट (बेस्ट) बसों में एक कंडक्टर की नौकरी कर ली. मशहूर कॉमेडियन नूर मोहम्मद चार्ली से प्रभावित होकर इन्हे फिल्मों का चस्का लग गया और इनकी दिली तमन्ना थी कि यह भी उनकी तरह फिल्मों में काम करें. अपनी कंडक्टर की नौकरी के दौरान ये अक्सर मिमिक्री से यात्रियों का मनोरंजन करते रहते थे. जिससे इनका शौक़ पूरा होता था.
माहिम में एक एक्स्ट्रा सप्लायर ने इन्हे देखा, तो फिल्मों में एक्स्ट्रा का काम दिलाने का वादा किया. भीड़ में खड़े होने के एवज में इन्हे महज़ 5 रुपये मिलते, जिसमें से एक रुपया वह सप्लायर ले लेता. शूटिंग के बीच में फुर्सत के दौरान सितारों के मनोरंजन के लिए लोग अक्सर बदरू को बुला लेते और लतीफे, क़िस्से कहानियाँ सुनाने को कहते, बदरू का अंदाज़-ए-बयाँ बहुत ही अच्छा था. फिल्म के सेट पर वह सबके चहीते हुआ करते थे. ‘हलचल’ (1951) फिल्म की शूटिंग के दौरान बलराज साहनी ने जब बदरू को दिलीप कुमार, याक़ूब जैसे स्टार्स का मनोरंजन करते देखा, तो उन्हें थोड़ा बुरा लगा. बाद उन्होंने बदरू को अकेले में बुलाकर कहा, “तुम कलाकार हो, भांड नहीं, अपनी कला की इज्जत करना सीखो.”
बदरू ने जब उन्हें अपनी मजबूरी बताई, तो बलराज साहनी का दिल पसीज गया और उन्होंने एक आइडिया सुझाया और अगले दिन मशहूर फ़िल्मकार गुरुदत्त के ऑफिस में आने को कहा. बलराज साहनी उन दिनों गुरु दत्त के साथ मिलकर ‘बाज़ी’ फिल्म की स्क्रिप्ट लिख रहे थे. अगले दिन गुरुदत्त अपने ऑफिस में चेतन आनंद के साथ कुछ डिस्कस कर रहे थे कि बदरुद्दीन अचानक आ धमके और शराबी की एक्टिंग शुरू कर दी, उन्होंने न सिर्फ धमाल मचाया, बल्कि गुरुदत्त के साथ बदतमीजी भी शुरू कर दी. हरकतें जब हद से ज़्यादा होने लगीं, तो गुरुदत्त को गुस्सा आ गया. उन्होंने अपने स्टाफ को बुलाया और शराबी को बाहर सड़क पर फेंक आने को कहा. चूंकि ये सारा नाटक बलराज साहनी के कहने पर रचा जा रहा था इससे पहले लोग बदरू को बहार निकल के फेकते. तभी बलराज साहनी हँसते हुए वहां आ पहुंचे और गुरुदत्त को सारा मुआमला समझाया. गुरुदत्त इतना खुश हुए कि उन्होंने बदरू के पीठ थपथपा कर न केवल उनकी एक्टिंग की दिल खोलकर तारीफ़ की और अपनी फ़िल्म ‘बाज़ी’ में फौरन एक रोल दिया,और शराबी की इतनी शानदार एक्टिंग करने के लिए व्हिस्की की मशहूर ब्रांड की तर्ज पर बदरुद्दीन काज़ी को जॉनी वाकर का नया फिल्मी नाम दे डाला. फिर इसके बाद बदरुद्दीन काज़ी उर्फ़ जॉनी वॉकर कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा.
उन्होंने अपनी ज़्यादातर फ़िल्मों में शराबी की भूमिका निभाई. उनकी कॉमिक टाइमिंग के सभी दीवाने थे. उन्होंने अपने जमाने के सभी बड़े फिल्ममेकर्स के साथ काम किया. उनके ऊपर फ़िल्माएं गए गानों को आज भी लोग गुनगुनाते हैं.
हिन्दी सिनेमा के वह एक ऐसे अदाकार थे जिन्होंने कभी शराब को हाथ तक नहीं लगाया, मगर जब भी पर्दे पर शराबी का क़िरदार किया, ऐसा लगता था कि इससे बड़ा कोई बेवड़ा नहीं है.
गुरुदत्त ने अपनी दूसरी फिल्मों ‘आर पार’, ‘मिस्टर ऐंड मिसेज 55’, ‘सीआईडी’, ‘प्यासा’, ‘काग़ज़ के फूल’ में भी जॉनी वाकर को महत्वपूर्ण भूमिकाएं दीं. ‘प्यासा’ में उन पर फिल्माया गया मोहम्मद रफ़ी का चंपी मालिश वाला गीत ‘सर जो तेरा चकराए या दिल डूबा जाए’ काफी मशहूर हुआ. 1958 की फ़िल्म अजी बस शुक्रिया में गाना बना ‘सच कहता है जॉनी वाकर, घर की मुर्गी दाल बराबर’.
जॉनी वॉकर हास्य भूमिकाओं में इस क़दर जमे कि उन्हें मुख्य भूमिका में लेकर ‘मिस्टर कार्टून एम.ए.’, ‘जरा बचके’, ‘रिक्शावाला’, ‘मिस्टर जॉन’ जैसी फिल्में बनने लगीं. उनकी एक फिल्म का तो नाम ही ‘जॉनी वाकर’ था.
जॉनी वॉकर की प्रमुख फिल्मों में ‘जाल’, ‘आंधियां’, ‘नया दौर’, ‘टैक्सी ड्राइवर’, ‘मुधमती,’ ‘कागज के फूल’, ‘गेटवे ऑफ इंडिया,’ ‘मिस्टर एक्स,’ ‘मेरे महबूब,’ ‘साईआईडी’ जैसी सुपरहिट फिल्में शामिल हैं.
उनकी लोकप्रियता का यह आलम था कि छोटे भाई कमालुद्दीन काज़ी ने अपना नाम टॉनी वाकर कर लिया और कई फ़िल्मों में काम किया. फिल्म ‘आर पार’ की शूटिंग के दौरान नायिका शकीला की छोटी बहन नूरजहां से हुई उनकी मुलाक़ात मुहब्बत में कब बदल गयी उन्हें पता ही नहीं चला और फिर गुपचुप तरीक़े से निकाह भी कर लिया गया. बांद्रा और फिर अंधेरी में बने अपने बंगले का नाम उन्होंने अपनी बीवी के नाम पर ‘नूर विला’ रखा. उन्होंने खूब फ़िल्मों में काम किया, कई फिल्में प्रोडूस की और ‘पहुंचे हुए लोग’ फ़िल्म का निर्देशन भी किया. अपने 35 साल के फ़िल्मी करियर में इन्होने तक़रीबन 325 फिल्मों में काम किया और सिनेमा से संन्यास ले लिया, मगर हृषिकेश मुखर्जी के आग्रह पर ‘आनंद’ और गुलज़ार के आग्रह पर ‘चाची 420’ की भावनात्मक भूमिकाएं उन्होंने की. सुपरस्टार रजनीकांत ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था कि बस कंडक्टर से एक्टर बनने की प्रेरणा उन्हें जॉनी वाकर से मिली थी .
जॉनी वॉकर को पहला फ़िल्मफेयर अवार्ड फिल्म ‘मधुमती’ में सपोर्टिंग एक्टर के रोल के लिए मिला था. इसके बाद फ़िल्म ‘शिकार’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ हास्य कलाकार के अवॉर्ड से नवाज़ा गया.
ताउम्र दर्शकों को हंसाने वाले जॉनी वॉकर 29 जुलाई, 2003 को इस दुनिया- ए – फ़ानी से रुख़्सत हो गए. उनके निधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने शोक जताते हुए कहा था… जॉनी वॉकर की त्रुटिहीन शैली ने भारतीय सिनेमा में हास्य शैली को एक नया अर्थ दिया है.’